संवाददाता ए के सिंह
नई दिल्ली: भारत के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई ने कहा है कि न्यायाधीशों को बाहरी नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए और हर लोकतंत्र में न्यायपालिका को न केवल न्याय देना चाहिए, बल्कि उसे एक ऐसी संस्था के रूप में भी देखा जाना चाहिए जो सत्ता के सामने सच्चाई को रखने का हकदार है.
सीजेआई ने कहा कि दुख की बात है कि न्यायपालिका के भीतर भी भ्रष्टाचार और कदाचार के मामले सामने आए हैं और ऐसी घटनाओं का जनता के विश्वास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
सीजेआई ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित एक गोलमेज सम्मेलन में 'न्यायिक वैधता और सार्वजनिक विश्वास बनाए रखना' विषय पर बोल रहे थे. इस गोलमेज सम्मेलन में भारत के सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, इंग्लैंड और वेल्स की महिला मुख्य न्यायाधीश बैरोनेस कैर और लॉर्ड लेगट भी शामिल हुए. ब्रिटेन सुप्रीम कोर्ट में गोलमेज चर्चा मंगलवार को आयोजित की गई थी.
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि प्रत्येक लोकतंत्र में न्यायपालिका को न केवल न्याय प्रदान करना चाहिए, बल्कि उसे एक ऐसी संस्था के रूप में भी देखा जाना चाहिए जो सत्ता के सामने सत्य को रखने की हकदार है और 'न्यायिक वैधता' और 'सार्वजनिक विश्वास' शब्द आपस में जुड़े हुए हैं.
सीजेआई ने कहा,'2015 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 को इस आधार पर रद्द कर दिया था कि यह अधिनियम न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका को प्राथमिकता देकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता है. कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना हो सकती है, लेकिन कोई भी समाधान न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं आना चाहिए. न्यायाधीशों को बाहरी नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए.'
मुख्य न्यायाधीश ने इस बात पर जोर दिया कि विधायिका या कार्यपालिका के विपरीत जिनकी वैधता मतपत्र से आती है, न्यायपालिका स्वतंत्रता, अखंडता और निष्पक्षता के साथ संवैधानिक मूल्यों को कायम रखकर अपनी वैधता अर्जित करती है.
सीजेआई ने कहा, 'दुख की बात है कि न्यायपालिका के भीतर भी भ्रष्टाचार और कदाचार के मामले सामने आए हैं. ऐसी घटनाओं का जनता के विश्वास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे पूरी व्यवस्था की अखंडता पर लोगों का भरोसा खत्म हो सकता है.
हालांकि, इस विश्वास को फिर से बनाने का रास्ता इन मुद्दों को संबोधित करने और हल करने के लिए की गई त्वरित, निर्णायक और पारदर्शी कार्रवाई में निहित है. भारत में जब भी ऐसे मामले सामने आए हैं, तो सुप्रीम कोर्ट ने लगातार कदाचार को दूर करने के लिए तत्काल और उचित कदम उठाए हैं.'
सीजेआई ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली का बचाव करते हुए कहा कि भारत में विवाद का एक मुख्य मुद्दा यह रहा है कि न्यायिक नियुक्तियों में किसकी प्राथमिकता है. 1993 तक सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति में अंतिम निर्णय कार्यपालिका का ही होता था. उन्होंने कहा कि इस अवधि के दौरान कार्यपालिका ने भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में दो बार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को दरकिनार कर दिया, जो स्थापित परंपरा के विरुद्ध था.
सीजेआई ने कहा, 'इसके जवाब में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 1993 और 1998 के अपने निर्णयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करते हुए यह स्थापित किया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के साथ मिलकर एक कॉलेजियम का गठन करेंगे, जो सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्तियों की सिफारिश करने के लिए जिम्मेदार होगा.'
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि कॉलेजियम प्रणाली का उद्देश्य कार्यपालिका के हस्तक्षेप को कम करना तथा नियुक्तियों में न्यायपालिका की स्वायत्तता बनाए रखना है. सीजेआई ने कहा कि न्यायिक प्रक्रिया का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अदालती फैसलों के साथ ठोस तर्क भी होना चाहिए. जब फैसलों में सुसंगत तर्क की कमी होती है, तो इससे मुकदमेबाजों, वकीलों और आम जनता के बीच अदालत के निष्कर्षों के पीछे के तर्क के बारे में समझ की कमी हो सकती है. न्यायपालिका में विश्वास पैदा करने के लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि अदालती आदेश पूरी तरह से तर्कपूर्ण हों.
सीजेआई ने कहा, 'चर्चा का एक और मुद्दा सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों द्वारा की जाने वाली नौकरियां हैं. भारत में न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु निश्चित होती है. अगर कोई न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद सरकार के साथ कोई अन्य नियुक्ति ले लेता है या चुनाव लड़ने के लिए बेंच से इस्तीफा दे देता है, तो यह महत्वपूर्ण नैतिक चिंताएं पैदा करता है और सार्वजनिक जांच को आमंत्रित करता है.'
उन्होंने कहा कि किसी न्यायाधीश द्वारा राजनीतिक पद के लिए चुनाव लड़ने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर संदेह पैदा हो सकता है, क्योंकि इसे हितों के टकराव या सरकार का पक्ष लेने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है. उन्होंने कहा, 'सेवानिवृत्ति के बाद की ऐसी गतिविधियों का समय और प्रकृति न्यायपालिका की ईमानदारी में जनता के विश्वास को कमजोर कर सकती है, क्योंकि इससे यह धारणा बन सकती है कि न्यायिक निर्णय भविष्य में सरकारी नियुक्तियों या राजनीतिक भागीदारी की संभावना से प्रभावित होते हैं.'
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, 'उनके कई सहयोगियों और उन्होंने स्वयं सार्वजनिक रूप से यह वचन दिया है कि वे सेवानिवृत्ति के बाद सरकार से कोई भूमिका या पद स्वीकार नहीं करेंगे और यह प्रतिबद्धता न्यायपालिका की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता को बनाए रखने का एक प्रयास है. सीजेआई ने कहा कि सार्वजनिक पारदर्शिता बढ़ाने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने संविधान पीठ के मामलों की लाइव स्ट्रीमिंग भी शुरू की है.
हालांकि, किसी भी शक्तिशाली उपकरण की तरह लाइव स्ट्रीमिंग का उपयोग सावधानी से किया जाना चाहिए, क्योंकि फर्जी खबरें या संदर्भ से बाहर की अदालती कार्यवाही जनता की धारणा को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है. पिछले हफ्ते ही मेरे एक सहकर्मी ने हल्के-फुल्के अंदाज में एक जूनियर वकील को कोर्ट क्राफ्ट और सॉफ्ट स्किल्स की कला के बारे में सलाह दी थी. इसके बजाय, उनके बयान को संदर्भ से बाहर ले जाया गया और मीडिया में इस तरह से रिपोर्ट किया गया, 'हमारा अहंकार बहुत नाजुक है, अगर आप इसे ठेस पहुंचाते हैं, तो आपका मामला खत्म हो जाएगा.'
सीजेआई ने जोर देकर कहा कि वैधता और जनता का विश्वास आदेश के दबाव से नहीं बल्कि अदालतों द्वारा अर्जित विश्वसनीयता के माध्यम से सुरक्षित किया जाता है. इस विश्वास के किसी भी क्षरण से अधिकारों के अंतिम मध्यस्थ के रूप में न्यायपालिका की संवैधानिक भूमिका कमजोर होने का खतरा है. पारदर्शिता और जवाबदेही लोकतांत्रिक गुण हैं. आज के डिजिटल युग में जहां सूचना स्वतंत्र रूप से प्रवाहित होती है और धारणाएं तेजी से आकार लेती हैं, न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता से समझौता किए बिना सुलभ, समझदार और जवाबदेह होने की चुनौती का सामना करना चाहिए।
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