इंडिया का न्यू नॉर्मल : छुट्टा घूमते जहरखुरान आलेख : बादल सरोज





जहर खुरानी न्यू इंडिया का न्यू नॉर्मल है। नफ़रती जहर फैलाने की प्रतियोगिता-सी शुरू हो गयी है। एक तरह से देखें तो ऐसा होना ही था। जब ऊंचाई तक पहुँचने के लिए कटखना और जहरीला होना एकमात्र योग्यता बना दी गयी हो, जब शर्मो-हया, लोक-लाज, सामाजिक बर्ताव की समस्त सीमाओं को लांघते फलांगते हुए किये जाने वाला व्यवहार बेहतर पद पाने, विधायक सांसद यहाँ तक कि मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के पद तक पहुँचने के पुरस्कार का आधार बन जाए, तो इसे ही जीवन की पूर्णता का लक्ष्य मानने वालों के लिए उठ-उठ कर, उचक-उचक कर विषवमन करना चौबीस घंटा सातों दिन किये जाने वाला काम बन जाता है।

मध्यप्रदेश – जो अपने अतीत में आमतौर से इससे दूर रहा, कम से कम खुले रूप में कभी विषपायी नहीं रहा – इन दिनों जहरखुरानों का चारागाह बना हुआ है। इस बार सिलसिला ग्वालियर से शुरू हुआ है, मगर न तो यह सिर्फ ग्वालियर तक महदूद है और ना ही यह सिर्फ ग्वालियर तक सीमित मसला है। फिर भी शुरुआत यहीं से करते हैं। कुछ महीने पहले हाईकोर्ट के परिसर में डॉ. अम्बेडकर की मूर्ति लगाए जाने को लेकर कुछ मूर्ति विरोधियों ने उत्पात मचाया। ये न तो मूर्तिपूजा को मनुष्य की गरिमा के विरुद्ध मानने वाले आर्यसमाजी थे, न बुतपरस्ती से नाइत्तफाकी रखने वाले मजहब को मानने वाले थे। ये सब संघी थे – ऐसे संघी, जो खुद को मनुवादी कहने से कतई नहीं शर्माते। जो शूद्रों को मनुस्मृति सम्मत वर्णाश्रमी हैसियत पर पहुंचाए जाने के खुले पक्षधर हैं। सारी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद भी मूर्ति नहीं लगने दी गयी।

जाहिर है, इसका प्रतिवाद हुआ ; आम तौर से यह प्रतिवाद लोकतान्त्रिक तरीके से उन संगठनों की अगुआई में हुआ, जो इस उत्पात की असली वजह समझते थे और संविधान की ओर लपकते भेड़ियों की आंख में आँख डालकर देखने की ताब रखते थे। हालांकि जातिवाद के कुछ दुकानदार अपनी रेहड़ी लेकर इधर भी आये, मगर कुल मिलाकर उनके मंसूबे पूरे नहीं हुए।

प्रतियोगितात्मक उन्माद विकसित करने की अपनी कोशिशों को व्यर्थ जाते देख मूर्ति लगाने के विरोधियों ने अपने मुखौटे उतार दिए और सीधे-सीधे गाली-गलौज पर आ गए। डॉ. अम्बेडकर से लेकर दमित और दलित जातियों के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया। सत्ता में उन्हीं के सहोदर बैठे हैं, प्रशासन उन्हीं की जकड़न में हैं। लिहाजा जब ऊपर वाला मेहरबान, तो इन्हें पहलवान होना ही था। जिनका इस पूरे प्रपंच में कोई रोल ही नहीं था, हताशा में आकर  उन राम जी का नाम लेकर गटर गहरी करने की तिकड़म आजमाई, मगर उसे भी मुस्लिम नाम वाली युवती पुलिस अधिकारी ने कामयाब नहीं होने दिया। अब खुले आम संघी आई टी सैल ब्राह्मणों, क्षत्रियों से बन्दूक तलवार उठाकर यलगार करने की हुंकार कर रही है, उन्माद को टकराव तक ले जाने की कोशिश की जा रही है। किस तारीख के आव्हान का क्या हुआ, कितने लोग आने थे, कितने आये,  इस आधार पर जो जहर फ़ैल चुका है, उसकी अनदेखी करना स्वयं को धोखे में रखना होगा।

इसे भ्रष्ट, कुपढ़ और शाखा दक्ष, राजनीतिक महत्वाकांक्षा की गलाजत से भरे किसी कुंठित वकील  या उसके मुंशियों की कारगुजारी मानना खतरे को कम करके आंकना होगा। जो जहर ये गिरोह यहाँ फैला रहा है, वह इनका अपना उत्पाद नहीं है : इसके थोक उत्पादक और वितरक ऊपर बैठे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च जज जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पदों में से एक पर बैठे न्यायमूर्ति गवई की तरफ उछला जूता किसी व्यक्ति पर नहीं, संविधान और सभ्य समाज पर उछला जूता था। इसके बाद – भले कई घंटों बाद – देश-दुनिया को दिखाने के लिए प्रधानमंत्री ने दुःख और अफ़सोस जता दिया हो, मगर उनकी पार्टी के एक भी मंत्री, एक भी पदाधिकारी ने उफ़ तक नहीं की।

हर तीसरे दिन सामाजिक समरसता और हिन्दू एकता पर प्रवचन देने वाले आर एस एस प्रमुख भी कुछ नहीं बोले । मगर इनके नियंत्रित मीडिया और उनकी विषाक्त आईटी सैल ने उसी दिन से जो कुत्सा अभियान छेडा हुआ है, उसकी नीचाई की कोई सीमा नहीं है। सिर्फ गवई ही नहीं गरियाए जा रहे, उनके बहाने न्यायपालिका और संविधान और सामाजिक न्याय सब पर जहरीली मिसाइलें दागी जा रही हैं।

अब जब विषप्रक्षालन के घाट पर इनके ‘ठठ के ठठ इकठ्ठा होकर ठट्ठा और लट्ठम लट्ठा करने भीड़ की भीड़ लगाए बैठे है, तो गंगोत्री उससे वंचित कैसे रह सकती है : सो भी तब, जब अभी बिहार और उसके बाद बंगाल में चुनाव हो रहे हों। शीर्ष पर दो नम्बर – जहां गिनती पूरी हो जाती है – पर विराजे गृह मंत्री अमित शाह ने घुसपैठियों की बाढ़ आने और मुसलमानों की आबादी बढ़ोत्तरी की दर 24% हो जाने का शिगूफा छोड़ा। अपने ट्विटर अकाउंट से भी साझा किया ; कुछ दिन बाद डिलीट भी कर दिया। मगर जो होना था, वह तो हो ही गया, सच आंकड़ो की किताब में रह गया, झूठ मटरगश्ती कर आया।

यह बात अलग है कि ठीक उन्ही दिनों अफगानिस्तान की  तालिबानी सरकार के तालिबान के स्वागत के लिए लाल कालीन बिछाया जा रहा था। कहते हैं कि इसके पीछे भी दोहरा मकसद था : तालिबानी सरकार के जरिये पाकिस्तान पर दवाब बनाने की “समझदारी”, वहीँ उनके बहाने भारत में अपना ध्रुवीकरण का एजेंडा आगे ले जाने की उम्मीद!! मगर अमित शाह अभी भी पहले चरण तक ही हैं। जबकि उनका कुनबा अगले चरण – शूद्रों को उनकी हैसियत दिखाने और संविधान की जगह मनु को पधराने के लिए पीठिका बनाने के मुकाम तक आ चुका है। यह जुगलबंदी उसी का हिस्सा है।

हरियाणा में आत्महत्या करने वाले वरिष्ठ आई पी एस की मृत देह अंतिम संस्कार के लिए 9 दिन तक इन्तजार करती रही। उनकी जीवन संगिनी खुद एक वरिष्ठ आई ए एस अधिकारी होने के बावजूद अपने पति को अंतिम विदा नहीं दे पाई, क्योंकि उन्हें आत्महत्या के लिए विवश करने वाले नामजद अधिकारियों के खिलाफ हरियाणा सरकार कार्यवाही करने के लिए तैयार नहीं है। इधर एक लाश मुर्दाघर में हैं, उधर नफरती अभियान में सिद्ध प्रेत उसके खिलाफ अभियान छेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। एक मरे हुए व्यक्ति के प्रति सम्मान का दिखावा भी नहीं किया जा रहा है। ध्यान रहे आत्महत्या करने वाले एडी जी पी का नाम पूरण कुमार है और जैसा कि उन्होंने अपने लम्बे सुसाईड नोट में लिखा है, उनका एकमात्र अपराध उनका दलित होना है।

इस तरह के नफरती उन्माद को हवा देने वाले यह भूल जाते हैं कि जहर जब हवाओं में घुलता है, तो अपना-पराया नहीं देखता। अलीगढ का व्यवसायी परिवार का प्रोफेसर अभिषेक गुप्ता इसका उदाहरण है। उन्हें उन्ही साध्वी शकुन पाण्डेय ने मरवा डाला जो कथित रूप से उनके साथ संबंधों में थीं। मरने, मारने और मरवाने वाले तीनों के तीनों पक्के हिन्दू थे। इनमें से साध्वी तो इत्ती पक्की वाली सनातनी थीं कि बिना किसी नागा के हर 30 जनवरी को सनातनी गाँधी के पुतले में गोली दाग कर गोडसे की पूजा करती थीं। गांधी का तो खैर क्या बिगड़ना था, मगर उनके इस शौर्य पर प्रमुदित और गौरवान्वित होने वाला अभिषेक जरूर उनका शिकार बन गया।

अब यही विधि डॉ अम्बेडकर के साथ आजमाई जा रही है। बिगड़ेगा तो उनका भी कुछ नहीं। मगर जो इस बहाने अपना कुछ सुधरने की आस लगाए बैठे हैं, वे खातिर जमा रखें ; जहर उन्हें भी नहीं बख्शने वाला। इसलिए कि मनु जब आयेंगे, तब सिर्फ गरीब गुरबों के लिए नहीं आयेंगे, वे किन-किन के लिए आयेंगे, इसकी पूरी तहरीर श्रेणीक्रम सहित इस कुनबे की किताबों में दर्ज है। जिन्हें खुद के ‘सवर्ण’ होने का मुगालता और उसके चलते राज सिंहासन पर विराजने का भरम है, वे रामभद्राचार्य के आप्त वचनों को ही सुनकर अपनी गलतफहमी दूर कर सकते हैं।

अगला मोर्चा खुल चुका है। सिर्फ उलूकवंशी ही ऐसे में तटस्थ रहने या बीच का रास्ता निकालने का जोखिम ले सकते हैं। जो इस देश, उसकी आबादी, लम्बे संघर्षों के बाद कम से कम कागज पर हासिल उजाले की सलामती के हिमायती हैं, उन्हें मशाल जलानी पड़ेंगी। इसलिए कि भेड़िये बाकी जो भी कोशिश कर सकते हैं कर लें,  मशाल जलाना, गाँव बसाना नहीं जानते। इतिहास गवाह है कि इतिहास और सभ्यताओं का निर्माण भेड़ियों ने नहीं, अँधेरे के विरुद्ध उठी मशालों ने ही किया है । 

लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। 



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