लगता है, कुनबे ने देश को इस दीवाली की सौगात देने का जिम्मा मालेगांव बम धमाकों में जांच एजेंसियों की ‘लापरवाही’ के चलते बरी हुई, इस आतंकी घटना की जांच करने वाली एटीएस के चीफ हेमंत करकरे की मुम्बई आतंकी हमलों में शहादत को अपने ‘श्राप’ का असर बताने और गांधी के हत्यारे गोडसे को ‘देशभक्त’ बताने वाली, भोपाल की पूर्व भाजपा सांसद , स्वयंसिद्धा ‘साध्वी’ प्रज्ञा सिंह ठाकुर को सौंपा हुआ था। उन्होंने इसे पूरे मनोयोग से निबाहा और जम्बूद्वीपे भारत खंडे की युवतियों और स्त्रियों के लिए बौछार ही कर दी। एक समारोह में "जय श्री राम" के उद्घोष के बीच उन्होंने ‘कहना न मानने वाली लड़कियों की टाँगे तोड़ देने’ का आह्वान कर दिया। बोलीं कि “अगर हमारी लड़की हमारा कहना नहीं मानती है, किसी विधर्मी के यहां जाने का प्रयास करती है, तो उसकी टांगे तोड़ने में भी कोई कसर मत छोड़ना। जो संस्कारों, बातों से नहीं मानती है, तो उसे ताड़ना देनी पड़ती है।“ प्रज्ञा सिंह ने ये भी कहा कि “ऐसी बच्चियां जो हठी हैं, माता-पिता की बात नहीं मानतीं, संस्कारों को नहीं मानती, घर से भागने को तैयार है उनके लिए सतर्क रहो, जागते रहो और ऐसी लड़कियों को मारकर, पीटकर, समझाकर और प्यार से जैसे भी हो, लेकिन जाने मत दो।“ खुलेआम हिंसा का यह आपराधिक आह्वान करते हुए एक वाक्य में उन्होंने लड़कियों को ‘मियांईन न बनने देने’ की बात कहते हुए उस विष का छौंक बघार भी लगाया, जिस विष का इस कुनबे के पास भरपूर भण्डार है।
यह सीधे-सीधे इस देश की आधी आबादी के विरूद्ध युद्ध की यलगार है। किस तरह यह सिर्फ अंतर्धार्मिक पसंद तक सीमित तलवार नहीं है, इसकी दुधारू धार है ; और क्यों यह सिर्फ सत्ता पार्टी की एक पूर्व सांसद का बयान नहीं है, किस एजेंडे का विस्तार है, सिर्फ स्त्रियों का ही तिरस्कार नहीं है, बल्कि इस देश के इतिहास, परम्पराओं और पृथ्वी और उसके इस हिस्से के कुछ हजार वर्षो के हासिल का निषेध, संविधान का धिक्कार और इस तरह एक अपराध है, आदि-इत्यादि पहलुओं पर आने से पहले इस नफरती साजिशी आख्यान की सत्यता के बारे में जान लेना उचित होगा। जिसकी आशंका से साध्वी जल-भुन कर आग भभूका हुई जा रही थीं,
टांग तोडू हिंसा के लिए लोगों को उकसाते हुए प्रज्ञा सिंह जिस कथित ‘लव जिहाद’ को हवा दे रही थी, यह एक नितांत झूठी बकवास है। यह बात खुद उनके मोदी जी की सरकार के अमित शाह के गृह मंत्रालय के राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने 4 फरवरी 2020 को लोकसभा में दिए गए एक लिखित उत्तर में कही थी कि ‘केंद्र सरकार की किसी भी एजेंसी ने लव जिहाद के एक भी मामले की जानकारी नहीं दी है।‘ यह भी कि देश में ‘लव जिहाद’ जैसी कोई चीज नहीं है। उन्होंने कहा कि ‘भारत के संविधान की धारा 25 प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म को मानने की स्वतंत्रता देती है।‘ इससे पहले 2018 में प्रधानमंत्री मोदी के नियंत्रण वाली एनआईए केरल के दो विवाहों के मामले सहित कई प्रकरणों में जांच करके फैसला दे चुकी थी कि लव जिहाद के अस्तित्व का कोई सबूत नहीं है। उत्तराखंड के पुरोला में तनाव के बाद भी यह मामला एक अफवाह साबित हुआ। केरल हाईकोर्ट भी अपने एक फैसले में किसी जिहाद-विहाद की मौजूदगी को नकार चुका है। पिछली कई वर्षों में सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए अनेक सवालों के जवाब में अमित शाह के गृह मंत्रालय ने न केवल मना किया गया, बल्कि खुद मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में शपथपत्र दाखिल करते हुए लव जिहाद के वजूद से साफ़ इनकार किया था। इसके बाद भी उन्ही की पार्टी की चहेती नेता, जिसे अनेक आपराधिक मामलों में अभियुक्त होने और तमाम अनर्गल बातें करने के बावजूद सांसद बनाया गया, लड़कियों को मारने, पीटने, उनकी टांग तोड़ने के आह्वान क्यों कर रही हैं? यह सिर्फ इस्लामोफोबिक अभियान, जिसके तहत यह डर पैदा किया जाता है कि मुस्लिम पुरुष जानबूझकर गैर-मुस्लिम महिलाओं को बहला-फुसलाकर शादी करते हैं और उन्हें इस्लाम में धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करते हैं, भर नहीं है। वह तो है ही। भारत के मुस्लिम नागरिकों के प्रति अपना द्वेष ये स्वयं मौके-बेमौके उगलती रहती है। अभी इसी सितम्बर में दुर्गा वाहिनी के एक कार्यक्रम में बोलते हुए इन्होंने खुले आम मंच से कहा था कि ‘अगर गैर-हिंदू मंदिरों के बाहर प्रसाद बेचते दिखें, तो उन्हें पीटा जाए और पुलिस के हवाले करने से पहले सबक सिखाया जाए।“ उन्होंने यह भी कहा कि “हर घर में तेज धार वाले हथियार मौजूद होने चाहिए, ताकि आवश्यकता पड़ने पर उनका इस्तेमाल किया जा सके।“ इस बार वे मुस्लिमों के बहाने सभी भारतीय महिलाओं के खिलाफ रणभेरी फूंक रही हैं। इस तरह उस असली पटकथा के लिए मंच सजा रही हैं, जो उनके कुनबे के हिन्दू राष्ट्र का सार है। यह बात सिर्फ अंदाजा, अनुमान या आरोप नहीं है – ये जिसका लिखा बांच रही हैं, उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पक्का विचार है।
इस वर्ष 100 वर्ष का हुआ आरएसएस इस मायने में भी इस देश का ऐसा विचित्र संगठन है कि कोई महिला इसका सदस्य नहीं बन सकती। इसका कोई संविधान है या नहीं, यह बात तो खुद इनके अपनों तक को नहीं पता, अलबत्ता इनकी आधिकारिक वेबसाईट पर अक्सर पूछे जाने वाले सवालों – एफएक्यूज – में साफ़-साफ़ लिखा है कि “यह हिन्दू पुरुषों का संगठन है” और कोई भी “हिंदू पुरुष” स्वयंसेवक बन सकता है। इसमें साफ़-साफ़ लिखा गया है कि “उसकी स्थापना हिंदू समाज को संगठित करने के लिए की गई थी और व्यावहारिक सीमाओं को देखते हुए संघ में महिलाओं को सदस्यता नहीं दी जाती है, सिर्फ हिन्दू पुरुष ही इसमें शामिल हो सकते हैं, इसके स्वयंसेवक बन सकते है।“ इस तरह विश्व भर के, सकल ब्रहांड के हिन्दुओं को संगठित करने के लिए कटिबद्ध संघ में हिदू महिलाओं का प्रवेश निषिद्ध है। हालांकि यह दावा जोड़ दिया कि “अपने शताब्दी वर्ष में महिला समन्वय कार्यक्रमों के ज़रिए वो भारतीय चिंतन और सामाजिक परिवर्तन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को बढ़ाना चाहता है।“ यह भागीदारी कैसे बढ़ाई जायेगी, इसकी एक झलक प्रज्ञा सिंह के टांग तोड़ो, मारो-पीटो के आव्हान से मिल जाती है।
संघ के आदि और एकमात्र गुरु गोलवलकर इस मामले में और आगे बढ़कर कहते हैं कि "एक निरपराध स्त्री का वध पापपूर्ण है, परन्तु यह सिध्दांत राक्षसी के लिए लागू नहीं होता।“ राक्षसी कौन? इस प्रसंग में वे एक कहानी सुनाते है, जिसमें शादी के लिए अपने परिवार को राजी करने में असफल प्रेमी अपनी प्रेमिका को गला घोंट कर मार देता है और उसे तनिक भी पीड़ा नहीं होती। कृपया ध्यान दें, यहाँ प्रेमी विधर्मी नहीं, सहधर्मी है और कसूरवार लड़की नहीं, वह प्रेमी है, जो अपने परिवार को राजी करने में विफल रहा था!! तब गोलवलकर और आज प्रज्ञा सिंह जिस परम्परा की दुहाई दे रहे है, जिस कथित संस्कृति को वे महान कहते हैं, वह और कुछ नहीं, मनुस्मृति पर आधारित सामाजिक ढांचा है। अब यदि समाज को उस दिशा में ले जाना है, तो उसके लायक बर्बरता भी समाज के सोच में लानी और बिठानी होगी।लव जिहाद तो बहाना है : स्त्रियों को मनु की बेड़ियों में जकड़ना है। वह मनुस्मृति, जिसका किसी हिंदू-विन्दु के साथ कोई संबंध नहीं है।
गोलवलकर कहते थे कि “महिलायें मुख्य रूप से माँ है और उनका काम बच्चों को जन्म देना, पालना पोसना, संस्कार देना है।“ सौ वर्ष बाद भी यह धारणा ज्यों की त्यों है : मौजूदा सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत स्त्री की जगह तय करने के साथ विवाह को एक ऐसा कॉन्ट्रैक्ट बताते हैं, जिसमे पुरुष का काम पत्नी की आवश्यकताओं की पूर्ति करना और पत्नी का दायित्व पति की सेवा करना और सुख देना है। शताब्दी वर्ष में संघ ने इन दायित्वों में चार से दस तक संताने पैदा करने का काम और जोड़ दिया है।
संघ घोषित रूप से जिसके आधार पर राज चलाना चाहता है, वह मनुस्मृति कोई धार्मिक ग्रन्थ नहीं है। यह वर्णाश्रम की जड़ता की जंत्री है ; एक ऐसी जंत्री, जो मूलतः स्त्री के विरुद्ध है। एक ऐसी शासन प्रणाली है, जिसका झंडा लाल किले या पार्लियामेंट के ध्वज स्तम्भ पर नहीं, स्त्री की देह में गाड़कर खड़ा किया जाता है। शूद्रों के खिलाफ वीभत्सतम बातें लिखने के साथ यह स्त्री को शूद्रातिशूद्र बताती है -- मतलब उनसे भी ज्यादा वीभत्सतम बर्ताब की हकदार। इसके मुताबिक़ स्त्री मनुष्य नहीं है, वह ऐसी प्राणी है, जिसे कभी स्वतंत्र नहीं छोड़ना चाहिए ; ‘पिता रक्षति कौमारे भरता रक्षित यौवने / रक्षित स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति।‘ (9.3 ) यह कहती है कि “पति चरित्रहीन, लम्पट, निर्गुणी क्यों न हो, स्त्री का कर्तव्य है कि वह देवता की तरह उसकी सेवा करे।“ इसी को दोहराते हुए तुलसी कहते हैं कि : ‘’महावृष्टि चली फुट किआरी/ जिमि सुतंत्र भये बिगाड़ें नारी।“ उनसे पहले यही बात महाभारत में कही गयी है कि : ‘पति चाहे बोदा, बदसूरत, अमीर या गरीब कुछ भी हो, स्त्री के लिए उत्तम भूषण है’ और यह भी कि
‘बेवक़ूफ़ और मूर्ख पति की सेवा करने वाली स्त्री अक्षयलोक को प्राप्त करती है।‘ ये बात अलग है कि अक्षयलोक हो या स्वर्ग या जन्नत -- पुरुष के लिए अप्सराये हैं, परियां हैं, हूरें हैं -- स्त्री के लिए वहां भी कुछ नहीं है।
इस तरह लड़कियों के मियांइन बन जाने के खतरे का शोर मचाने के पीछे महिलाओं को गढ़ी हुई संस्कृति की बेड़ियों में जकड कर मनु के पिंजड़े में बंद करने की तैयारी को छुपाने की नीयत के सिवाय कुछ नहीं है। भारत का संविधान भले उन्हें अपना जीवन साथी चुनने का मूलभूत अधिकार देता है, इस तरह के अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाहों को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियाँ बनाये जाने की हिदायत और प्रावधान करता हो, डॉ. अम्बेडकर भले इसे भारत को जाति की जंजीरों से मुक्ति का एक महत्वपूर्ण रास्ता मानते हों ; मनुन्जाइटिस के शिकार इस सबको उलटने पर आमादा हैं। स्त्रियों को आत्मनिर्भर होकर स्वाभिमान के साथ अपने पांवों पर खड़ी होने की सामर्थ्य देने की बजाय मनुजाए उनकी टाँगे तोड़ने के लिए बढ़ रहे हैं।
हाल के कुछ आंकड़ों को देखें, तो साफ़ हो जाता है कि महिलाओं के पहले से ही त्रासद जीवन को और कठिन तथा यंत्रणापूर्ण बनाने के लिए वे मनु की पूर्ण बहाली तक का इन्तजार भी नहीं करना चाहते। जैसे, भारत में कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़े चौंकाने वाले हैं, 2000-2019 के दौरान कम से कम 90 लाख भ्रूण हत्याएं दर्ज की गईं हैं, जिनमें से अधिकांश हिंदुओं द्वारा की गईं। लिंगानुपात में असंतुलन इसका एक प्रमुख कारण है, जो 2011 की जनगणना के अनुसार 1000 पुरुषों पर 943 महिलाएँ थीं, जबकि 1901 में यह 972 थीं।
इसे आयु वर्ग में देखें, तो स्थिति और भयानक हो जाती है। 2011 की जनगणना के अनुसार, 0-6 वर्ष के आयु वर्ग में भारत का बाल लिंगानुपात -- प्रति 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या -- 918 था, जो 1961 की जनगणना के समय 976 से काफी कम है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट बताती है कि बेटे की चाहत और लैंगिक असमानता के कारण जन्म से पहले और बाद में लिंग-चयन के चलते भारतीय आबादी से लगभग 4.6 करोड़ महिलाएँ "लापता" हैं। नतीजे में भारत की जेंडर गैप इंडेक्स रेटिंग 2022 में 0.629 हो गयी और वह लुढ़क कर 146 देशों में 135वें स्थान पर पहुँच गया। साध्वी प्रज्ञा या कोई भी हिन्दूराष्ट्रिया इस बारे में एक शब्द नहीं बोलता।
जैसे, भारत में महिला उत्पीड़न के आंकड़े बताते हैं कि 2021 में महिलाओं के खिलाफ 4,28,278 मामले दर्ज किए गए, जो 2016 की तुलना में 26.35% अधिक है। इनमें घरेलू हिंसा, अपहरण, बलात्कार, दहेज हत्या और हमले जैसे अपराध शामिल थे।
जैसे जिस मध्यप्रदेश के जिस भोपाल से प्रज्ञा सिंह सांसद रहीं, लापता होने वाली लड़कियों के मामले में उस मध्यप्रदेश और भोपाल के आंकड़े बहुत डरावने हैं। अभी-अभी अगस्त 2025 में जारी आंकड़ों के अनुसार, जनवरी 2021 से लेकर पिछले साढ़े चार साल में, मध्य प्रदेश में 59,365 बच्चे लापता हुए, जिनमें से 48,274 लड़कियाँ थीं। हर दिन औसतन 32 महिलाएँ और लड़कियाँ लापता हुईं।
इससे पहले जुलाई 2023 में जारी आंकड़ों के अनुसार : 2019 से 2021 के बीच, पूरे देश में 13.13 लाख से अधिक लड़कियाँ और महिलाएँ लापता हुईं, जिनमें से सबसे अधिक मध्य प्रदेश से थीं। मध्यप्रदेश में भी साध्वी को सांसद बनाने वाला भोपाल और संघ-शासित इंदौर सबसे ऊपर था। न कभी सांसद महोदया इस बारे में कभी कुछ बोलीं – न उनकी भाजपा और उनके संघ ने इस बारे में जुबान खोली। इसका उलट अवश्य हुआ और वह यह कि पिछले साल भर में नाबालिग बच्चियों सहित बलात्कार, सामूहिक बलात्कार के जितने भी मामले सामने आये, उनके अधिकाँश अपराधी उसी हिन्दू-वीर कुनबे के निकले, जो साध्वी के टांग तोडू आह्वान पर "जैश्रीराम" की हुंकार लगा रहे थे/हैं।
प्रज्ञा सिंह के इस उत्तेजक और उन्मादी आह्वान को इस समग्रता में पढ़ने की जरूरत है। आमतौर से सभी को, खासतौर से उन अच्छी लडकियों को, जो बहुत अनुशासित होती हैं -- चुप-चुप रहती हैं -- जितना दे दो, उतने पर मान जाती हैं -- कभी जोर से नहीं बोलतीं -- कभी आगे नहीं भागती, कभी ना नहीं कहती -- सामने आने की बजाय पीछे-पीछे चलने में खुश रहती हैं। वे नहीं जानती कि इसकी वजह उस सामाजिक परवरिश में हैं -- कंडीशनिंग में हैं -- जिसने बहुत चतुराई से ठगी की है और झिझक को श्रृंगार, बेड़ियों को आभूषण बना दिया है। डर बिठा दिया गया है, जो डर नहीं, वैचारिक वर्चस्व है : पितृसत्ता का भरमजाल है। वर्चस्वकारी भारतीय संस्कृति के बड़े अध्येता सालुंखे कहते हैं कि : ‘’अन्य मामलो में अपनी भिन्नता को मुखर करने वाले धर्म/पंथ/विचारधाराएं एक मामले में पूरी तरह एक हैं कि पुरुष का सुख साध्य है और स्त्री उस सुख के साधनो में से एक साधन है। लिहाजा संसाधन के रूप में स्त्री के अपने सुख पर स्वतंत्र रूप से विचार करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।" यह भी कि पुरुष सत्ता की सड़ांध सिर्फ पुरुषों में ही नहीं होती -- महिलायें भी उसकी वाहक होती हैं।
इन ‘अच्छी’ लड़कियों को बोलना सीखना होगा – इस तरह के हमलों को सींग से पकड़ना होगा। लेनिन ने एक बार कहा था कि : ‘महफ़िलों और गोष्ठियों में चहको मत -- लड़ो और जगह बनाओ।‘ अच्छी बात है कि वे ऐसा कर रही हैं।
लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।
एस जाबिर।
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