भारत में पीएचडी शोध करने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति को यूजीसी-नेट राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा देनी होती थी, जो 2024-25 तक भारतीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में 'सहायक प्रोफेसर' तथा 'जूनियर रिसर्च फेलोशिप और सहायक प्रोफेसर' के लिए भारतीय नागरिकों की पात्रता निर्धारित करने के लिए एक परीक्षा थी। 2024 में, केंद्र सरकार ने शोध कार्यक्रमों के मानकीकरण और गुणवत्ता में सुधार के नाम पर पीएचडी प्रवेश के लिए नेट स्कोर को एक प्रमुख मानदंड बना दिया है। राज्य सरकारों के उच्च शिक्षा विभागों द्वारा सार्वजनिक धन से प्रबंधित राज्य संचालित विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की संख्या केंद्रीय विश्वविद्यालयों और संस्थानों से कहीं अधिक है। ये संस्थान अब तक अपने स्वयं के स्थापित चयन मानदंडों और प्रक्रियाओं के माध्यम से पीएचडी शोध कार्यक्रमों के लिए छात्रों का चयन कर रहे थे। अब, यूजीसी के नए आदेशों के साथ, राज्य स्तरीय संस्थान धीरे-धीरे अपनी चयन प्रक्रिया में नेट स्कोर को शामिल करने के लिए बाध्य हो रहे हैं। इस तरह की अत्यधिक केंद्रीकरण की प्रक्रिया गरीब और वंचित वर्गों के छात्रों को, विशेष रूप से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के तबकों के छात्रों को, शोध करियर अपनाने से रोकेगी।
एक ओर जहाँ केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति (एनईपी) को लागू करने के प्रयास में पीएचडी प्रवेश के लिए भी नेट अनिवार्य कर रही है, वहीं दूसरी ओर, वही केंद्र सरकार आईआईटी में प्रवेश को इसका भयानक अपवाद बना रही है। केंद्र सरकार ने 'सेतुबंध विद्वान योजना' नामक एक नई योजना शुरू की है, जिसके तहत पारंपरिक गुरुकुलों में संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) के अंक अनिवार्य नहीं हैं। 'सेतुबंध विद्वान योजना' पारंपरिक गुरुकुलों में अध्ययन करने वाले और बिना किसी औपचारिक अकादमिक डिग्री वाले छात्रों को मान्यता प्राप्त शैक्षणिक योग्यताएँ हासिल करने और प्रमुख आईआईटीज़ में शोध के लिए उदार छात्रवृत्ति प्राप्त करने के अवसर प्रदान करती है। 29 जुलाई के 'टाइम्स ऑफ इंडिया' की रिपोर्ट के अनुसार, यह योजना “शिक्षा मंत्रालय द्वारा समर्थित और केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के भारतीय ज्ञान प्रणाली (इंडियन नॉलेज सिस्टम - आइकेएस) प्रभाग द्वारा क्रियान्वित की जाएगी। यह योजना 18 विषय क्षेत्रों में 65,000 रुपये प्रति माह तक की फेलोशिप प्रदान करती है, जिसमें आयुर्वेद से लेकर संज्ञानात्मक विज्ञान तक और वास्तुकला से लेकर राजनीतिक सिद्धांत तक, व्याकरण से लेकर रणनीतिक अध्ययन तक और प्रदर्शन कला से लेकर गणित, भौतिकी और स्वास्थ्य विज्ञान तक शामिल हैं।
शोध कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए मूल पात्रता, हाईस्कूल और उच्च शिक्षा के 10+2+3+2 वर्ष हैं, और अब इन 15 वर्षों के कठोर वैज्ञानिक अध्ययनों के ऊपर, केंद्र सरकार ने नेट स्कोर को यह कहते हुए अनिवार्य कर दिया है कि शोध में गुणवत्ता के मानकीकरण के लिए यह बहुत आवश्यक है। वही सरकार अब यह कह रही है कि किसी मान्यता प्राप्त गुरुकुल में कम से कम पाँच वर्षों के कठोर अध्ययन और शास्त्रों या पारंपरिक ज्ञान में स्पष्ट उत्कृष्टता के आधार पर हासिल पात्रता, आईआईटी के शोध कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए पर्याप्त है। पीएचडी प्रवेश के लिए अनिवार्य नेट प्रक्रिया के माध्यम से कौन बाहर होगा और सेतुबंध विद्वान योजना की भयावह योजना के माध्यम से कौन शोध कार्य में शामिल हो जाएगा? वैज्ञानिक अनुसंधान के प्रति केंद्र सरकार का यह विरोधाभासी दृष्टिकोण, वास्तव में आरएसएस की उसी परियोजना में अपना योगदान देता है, जो जाति और वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित एक शाश्वत विभाजित समाज का निर्माण करना चाहती है। नई नेट आधारित प्रवेश प्रणाली, सदियों से चले आ रहे उत्पीड़न के कारण समाज के सबसे निचले तबके में फंसे लोगों के लिए शोध के अवसरों तक पहुँच को बेहद कठिन बना देगी। यानी, यह नेट गरीब और हाशिए पर पड़े वर्गों के छात्रों को शोध क्षेत्र से बाहर कर देगा। साथ ही, नेट समाज के कुलीन वर्ग के छात्रों के लिए शोध के क्षेत्र में प्रवेश के अवसर बढ़ाता है। सेतुबंध विद्वान योजना एक ऐसी योजना है, जो आईआईटी में अत्यधिक मांग वाले शोध के अवसरों को संस्कृत जानने वाले एक खास तबके को सोने की थाली में रखकर परोसा जा रहा है। यह तबका वैदिक शास्त्रों पर अपना अधिकार जताता है। यह स्पष्ट है कि वह तबका कौन-सा है?
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली शिक्षा की एक प्राचीन प्रणाली थी, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसकी उत्पत्ति वैदिक काल में, लगभग 1500 ईसा पूर्व में हुई थी। यह मौखिक परंपरा पर आधारित प्रणाली थी, जो कंठस्थ करने और पाठ करने पर केंद्रित प्रणाली है। यह एक ऐसी प्रणाली थी, जो गैर-ब्राह्मणों को शिक्षा प्रणाली से खुले तौर पर बाहर रखती थी। हमने कुख्यात एकलव्य-द्रोणाचार्य की कहानी सुनी है, जो जाति और वर्णाश्रम व्यवस्था की क्रूरता की मजबूत गवाही देती है। आमतौर पर यह दावा किया जाता है कि गुरुकुल अध्ययन में भाषा, व्याकरण, कुछ विज्ञान और गणित आदि विषयों की एक श्रृंखला शामिल होती है। बहरहाल, मंत्र याद करना और मंत्र जपना ही उन गुरुकुलों में ‘सीखना’ कहलाता है। अब इन मंत्र याद करने और जपने वाले गुरुकुल ‘शिक्षार्थियों’ को आईआईटी के शोध क्षेत्रों में अनुमति देने का अर्थ है – आईआईटी द्वारा शिक्षा और अनुसंधान में अब तक हासिल किए गए वैश्विक मानकों को कमजोर करना। इससे भारत के अनुसंधान पारिस्थितिकी तंत्र और मानव पूंजी को भारी नुकसान होगा, जिससे राष्ट्र के औद्योगिक और आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न होगी।
हमारा भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक के मौलिक कर्तव्य के रूप में वैज्ञानिक सोच के विकास पर ज़ोर देता है। अनुच्छेद-51 ए(एच) भारत के प्रत्येक नागरिक को "वैज्ञानिक सोच, मानवतावाद और जिज्ञासा एवं सुधार की भावना विकसित करने" का आदेश देता है। यह आदेश तर्कसंगत सोच, आलोचनात्मक अन्वेषण और वैज्ञानिक विधियों के माध्यम से वैज्ञानिक प्रगति के प्रति प्रतिबद्धता पर आधारित समाज का आह्वान करता है। बहरहाल, आरएसएस के नेतृत्व वाली भाजपा अपनी नई शिक्षा नीति-2020 के माध्यम से, एक तर्कसंगत और समतावादी समाज सुनिश्चित करने के लिए वर्तमान में मौजूद वैज्ञानिक प्रणालियों को नष्ट करने का प्रयास कर रही है, और उनकी जगह 'भारतीय ज्ञान प्रणालियाँ' स्थापित करके एक मनुवादी समाज, जो तर्कहीन और असमान समाज होगा, स्थापित करने का प्रयास कर रही है। यही आरएसएस का सौ साल पुराना सपना है।
महाराष्ट्र का एक विश्वविद्यालय, एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय है, जो खुद को दक्षिण एशिया का पहला महिला विश्वविद्यालय होने का दावा करता है और जिसकी स्थापना 1916 में हुई थी। इसने एनईपी-2020 के अनुसार यूजी कोर्स के लिए पाठ्यक्रम तैयार किया है, जिसका नाम “भारतीय ज्ञान प्रणाली की शुरुआत” है। उसने वैदिक धर्म और षड दर्शन (हिंदू धर्म के भीतर भारतीय दर्शन के छह रूढ़िवादी स्कूल) और वास्तु-विद्या को पढ़ने के लिए अपने पाठ्यक्रम का विषय बनाया है! यह दर्शाता है कि जब हम तथाकथित ‘भारतीय ज्ञान प्रणालियों’ को अपने शैक्षिक, वैज्ञानिक और अनुसंधान संस्थानों पर कब्जा करने की अनुमति देते हैं, तो हमारे लिए उससे क्या हासिल होता है। उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम में “भारतीय ज्ञान प्रणाली” को शामिल करने के लिए दिशा-निर्देश 13.06.2023 को जारी किए गए थे। ये दिशा-निर्देश निर्धारित करते है कि यूजी या पीजी कार्यक्रम में नामांकित प्रत्येक छात्र को कुल पाठ्यक्रम का कम से कम 5% आईकेएस (भारतीय ज्ञान प्रणाली) पाठ्यक्रम पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसका क्या अर्थ हैं? यूजी/पीजी प्रोग्राम में दाखिला लेने वाले हर छात्र को भारतीय ज्ञान प्रणाली (आईकेएस) के बहाने आरएसएस के दर्शन को सीखने और अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। 2014 से आरएसएस के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार हिंदू राष्ट्र की स्थापना के एजेंडे को लागू करने में जी-जान से जुटी हुई है।
एम.एस. गोलवलकर वह व्यक्ति थे, जिन्होंने आरएसएस की वैचारिक नींव रखी थीं। उन्होंने मनु को 'दुनिया का पहला और महान विधि निर्माता' बताया था, जिसने "अपनी संहिता में दुनिया के सभी लोगों को हिंदू धर्म अपनाने और इस देश के "सबसे वरिष्ठ" ब्राह्मणों के पवित्र चरणों में अपने कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करने का निर्देश दिया।" आरएसएस ने भारत की संविधान सभा से मनुस्मृति के सिद्धांतों के आधार पर संविधान बनाने का आग्रह किया था, जिसे डॉ. अंबेडकर और संविधान सभा ने खारिज कर दिया था। संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से व्यथित होकर, एम.एस. गोलवलकर ने सार्वजनिक रूप से कहा कि भारतीय संविधान "विदेशी" है। अब, नई शिक्षा नीति के माध्यम से, आरएसएस के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार भारत को ठीक इसी ओर ले जा रही है -- अर्थात, मनुवादी हिंदू राष्ट्र की ओर -- जिसमें एक वर्णाश्रम समाज होगा, जो नवउदारवाद की आवश्यकताओं के अनुकूल होगा।
किसी देश की शिक्षा नीति उसके युवाओं और देश के भविष्य का निर्धारण करती है। इसके अलावा, भारत में शिक्षा एक समवर्ती विषय है। लेकिन, भाजपा सरकार ने इस बारे में न तो संसद में चर्चा की और न ही नई शिक्षा नीति के संबंध में राज्यों से ही कोई परामर्श किया है।
भारत की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को आरएसएस की इस साजिश के खिलाफ अथक युद्ध छेड़ने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए।
लेखक पोलित ब्यूरो सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार संपादक हैं ,एस जाबिर।
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