केवल पर्यावरण का संकट नहीं लावैश्विक ऊर्जा की राजनीति भी, पेड़ लगाने का नारा भ्रामक और अव्यावहारिक , सौम्य दत्ता



संवाददाता ए के सिंह 

छत्तीसगढ़ रायपुर जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय संकट नहीं है, यह वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक तंत्र का परिणाम भी है। यह संकट औद्योगिक विकास मॉडल, उपभोगवाद और प्राकृतिक संसाधनों के असीम दोहन से भी जुड़ा है। वर्ष 1971 में ही मानव सभ्यता ने पृथ्वी की कुल जैविक उत्पादन क्षमता के दोहन को पार कर लिया था। आज हम धरती की क्षमता से 1.8 गुना अधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। उपभोग आधारित विकास मॉडल को विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वैश्विक कॉरपोरेट संस्थाओं ने बढ़ावा दिया है। इस प्रणाली में उत्पादन की प्राथमिकता मानव ज़रूरतों से नहीं, मुनाफे से तय होती है।"

उपरोक्त बातें प्रसिद्ध उर्जा व जलवायु परिवर्तन विश्लेषक सौम्य दत्ता ने कल पर्यावरण दिवस के अवसर पर एक संगोष्ठी में कही। संगोष्ठी का आयोजन वृंदावन हॉल में छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन और उसके घटक संगठनों ने किया था।

कोयला, खनन और झूठा विकास*

उन्होंने कहा कि भारत में कोयला और खनन का विस्तार आदिवासी और वन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा जैसे राज्यों में यह विस्थापन और पारिस्थितिकी विनाश का मुख्य कारण है। सौम्य दत्ता के अनुसार, भारत की कुल ऊर्जा क्षमता  475 गीगावाट है, जबकि अधिकतम मांग केवल 250 गीगावाट है। इसलिए नए कोयला बिजलीघर बनाना संसाधनों और पैसे की बर्बादी है। उन्होंने बताया कि कोयला आधारित बिजली की लागत 6.30 रूपये प्रति यूनिट है, जबकि सौर ऊर्जा 3 रुपए प्रति यूनिट में उपलब्ध है — फिर भी सरकार की प्राथमिकता कोयले पर है, क्योंकि यह "सुरक्षित निवेश" पुराने पूंजी निवेश को बचाने की कोशिश है।

दत्ता ने बताया कि इथेनॉल और बायोफ्यूल को "ग्रीन" विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना एक खराब विकल्प है, क्योंकि, इनमें ऊर्जा उत्पादन की तुलना में ऊर्जा की खपत अधिक होती है। एनर्जी रिटर्न ऑन एनर्जी इन्वेस्टमेंट केवल 1.4 है — यानि कम लाभ, अधिक नुकसान।

उन्होंने कहा कि "पेड़ लगाओ, धरती बचाओ" एक लोकप्रिय, लेकिन भ्रामक नारा है, क्योंकि कार्बन उत्सर्जन को पेड़ों से संतुलित करना व्यावहारिक नहीं है। कार्बन उत्सर्जन इतना ज्यादा है कि यदि भारत की 75% कृषि भूमि भी प्रयुक्त हो जाए, तो भी केवल 20% कार्बन ही सोखा जा सकता है।

*जलवायु संकट का सामाजिक प्रभाव*

सौम्य दत्ता का कहना था कि जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा भार गरीब और असंगठित क्षेत्र  के श्रमिकों पर पड़ रहा है — जैसे निर्माण मजदूर, स्ट्रीट वेंडर, किसान आदि। वर्ष 2022 में गर्मी और सूखे के कारण गेहूं की बंपर फसल की उम्मीदें चूर-चूर हो गईं थी और सरकार को निर्यात पर रोक लगानी पड़ी थी। वास्तविकता तो यह है कि  भारत के 90% से अधिक लोग वायु प्रदूषण की स्थिति में जी रहे हैं। दिल्ली में सबसे अधिक पेड़ होने के बावजूद यह सबसे प्रदूषित शहर है — यह दर्शाता है कि पेड़ लगाना समाधान नहीं है, जंगल और जैव विविधता को बचाना ज़रूरी है।

उन्होंने कहा कि केवल स्थानीय स्तर पर खदान विरोधी आंदोलन पर्याप्त नहीं हैं। इसे वैश्विक आर्थिक तंत्र और कारपोरेट-सरकारी गठजोड़ के खिलाफ लड़ाई से जोड़ना होगा। “नेट ज़ीरो”, “ग्रीन क्रेडिट” जैसे उपाय वास्तविक समाधान नहीं, बल्कि ध्यान भटकाने के तरीके हैं। असली समाधान उपभोग की समीक्षा, वैकल्पिक जीवनशैली, विकेन्द्रीकृत ऊर्जा और न्याय आधारित विकास में है। उन्होंने जोर दिया कि ज़मीनी आंदोलनों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेटवर्किंग व एकजुटता की आवश्यकता है, ताकि संरचनात्मक परिवर्तन संभव हो सके।

जारी : छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन


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