काश, सरदार पटेल होते! : राजेंद्र शर्मा




राजनैतिक व्यंग्य-समागम

1. काश, सरदार पटेल होते! : राजेंद्र शर्मा

बहनों और भाइयों, सॉरी मेरे परिवारीजनों,

आज का दिन, हम भारतीयों के लिए बहुत बड़ा दिन है। हमारे लिए तो विशेष गर्व का और आनंद का दिन है। आज हम अपने सरदार की जयंती मनाने के लिए यहां आए हैं। हमें इसका और भी आनंद है कि आज देशभक्तों की सरकार है, सरदार का आदर करने वालों की सरकार।

आजादी के बाद एक समय था, जब सरदार का नाम लेने में लोग झिझकने लगे थे। सोचते थे कि कहीं मेरा नुकसान न हो जाए। राज करने वाले मुझसे नाराज न हो जाएं। मेरे यहां ईडी, सीबीआई के छापे न पड़ जाएं। मुझे मीसा-डीआईआर में जेल में न डाल दिया जाए। इतिहास की किताबों से सरदार गायब। बच्चों की किताबों से सरदार गायब। फिल्मों से सरदार गायब। सच पूछिए तो भारत के लोग तो करीब-करीब भूल ही गए थे कि कोई सरदार भी था।

पर जब हमारी सरकार आयी, उसने आते ही सरदार के साथ अन्याय को मिटाने का बीड़ा उठाया। सरदार ही क्यों अन्य कितने ही भुला दिए गए स्वतंत्रता सेनानियों की याद को पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया। और हमें गर्व है कि हमने सरदार का खोया सम्मान लौटाया, उनका गौरव किया, उनकी जयंती मनानी शुरू की।

हमने जब उनकी विश्व की विशालतम प्रतिमा बनवाई, तब लोगों को पता चला सरदार के कद का, उनकी महानता का। हमने गर्व से कहा कि यह गर्व से कहने वालों की सरकार है कि हम सरदार के लोग हैं, और लोगों ने सरदार की महानता को पहचानना-समझना शुरू कर दिया।

विरोधी कहेंगे कि सरदार के सम्मान में पहले भी कोई कसर नहीं थी, उनके जीते जी भी और मरने के बाद भी। सरदार के नाम पर अब क्या है, जो हमारे राज से पहले का नहीं है? राजधानी में संसद के ऐन बगल के चौराहे पर सरदार पटेल की प्रतिमा है। सरदार पटेल के नाम पर चौराहा है। सरदार पटेल भवन है। सरदार पटेल मार्ग भी है। यहां तक कि सरदार सरोवर बांध भी है। और तो और, अहमदाबाद का वह अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम भी सरदार पटेल के ही नाम पर था, जिसको जीर्णोद्धार करने के नाम पर, नाम ही बदलकर अब नरेंद्र मोदी स्टेडियम कर दिया गया है। पर ये सब हमारे यानी सरदार के विरोधियों की बहानेबाजियां हैं। किसी सडक़ का नाम, किसी चौराहे का नाम, किसी भवन का नाम, संस्था का नाम, बांध का नाम या स्टेडियम का नाम रखने से, क्या सरदार के साथ हुआ अन्याय मिट सकता है?

ये सब तो औरों के नाम पर भी हैं, फिर सरदार का विशेष गौरव करना क्या हुआ? और ये जो विरोधी अब कहीं से खोज लाए हैं कि नेहरू जी ने, सरदार पटेल के जीते जी उनकी किसी प्रतिमा का उद्घाटन किया था, यह अगर सच भी हो तो सरदार का गौरव करने की नहीं, असगुन की बात है। उस प्रतिमा के लगने के बाद तो ऐसा लगता है कि सरदार की आयु और घट गयी थी। सचमुच दिल में सरदार का गौरव करना होता, तो नेहरू जी भी तो सरदार की विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा बनवा सकते थे, उन्हें किसी ने रोका था क्या?

मेरे परिवारीजनो,

आपके आशीर्वाद से और आपके इस सेवक के विनम्र प्रयासों से, अब सारी दुनिया हमारे सरदार को पहचानने लगी है। सचमुच सारी दुनिया क्योंकि नरेंद्र मोदी के नाम पर जो अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम बना है, जो दुनिया का सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम है, वह भी सरदार पटेल स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स का हिस्सा है। यानी मोदी के नाम के साथ, सरदार का नाम भी दुनिया भर में जा रहा है। फिर भी, हमारे मन में एक कसक अब भी है। काश, सरदार हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री होते। सिर्फ गृहमंत्री ही क्यों हुए, प्रधानमंत्री क्यों नहीं? स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री क्यों नहीं?

हमें तो गांधी जी से भी शिकायत है कि ये एक काम गांधी जी ने अच्छा नहीं किया। उन्हें नेहरू की अरबन नक्सल टाइप की बातों में नहीं आना चाहिए था और सरदार को प्राइम मिनिस्टर बनाना चाहिए था? आखिरकार, नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने से सब का नुकसान ही हुआ, खुद गांधी जी का भी। अगर सरदार पटेल पहले प्रधानमंत्री होते, तो क्या गांधी को गोली लगती? कभी नहीं। न गोडसे को गांधी जी से शिकायत होती और न गांधी जी को बिड़ला हाउस में गोली लगती। एक नहीं दो-दो जानें तो यूं ही बच जातीं। गांधी जी की भी और गोडसे जी की भी। और जाहिर है कि सावरकार जैसी महान आत्मा को, गांधी की हत्या के आरोपों की बदनामी तो नहीं ही झेलनी पड़ती।

और हां! आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने, संघ के नेताओं व कार्यकर्ताओं को जेल में डाले जाने आदि का भी कोई प्रसंग नहीं आता। और तब आरएसएस को भी प्रतिबंध हटवाने के लिए सरदार से यह कच्चा वादा नहीं करना पड़ता कि वह राजनीति से दूर रहेगी!

और हां! प्रतिबंध के प्रसंग से याद आया, सरदार अगर प्रधानमंत्री होते, तो क्या आरएसएस पर प्रतिबंध लगने देते? सरदार के विरोधी, उन्हें यह कहकर झूठा बदनाम करते हैं कि आरएसएस पर प्रतिबंध तो उन्होंने ही लगाया था और वह भी अपनी कलम से। असल में आरएसएस पर सरदार से प्रतिबंध लगवाना तो, उन्हें बदनाम करने की नेहरू की चाल थी। चूंकि नेहरू प्रधानमंत्री थे, गृहमंत्री के नाते सरदार उनका फैसला लागू करने के लिए बाध्य थे और वह भी तब उनके  बीच फैसला कराने वाले गांधी जी जा चुके थे। पर सरदार ने वह फैसला जरूर बहुत भारी मन से लिया था। वैसे ही, जैसे उन्होंने कश्मीर की धारा-370 का फैसला बहुत भारी मन से लिया था। हमें तो लगता है कि गृहमंत्री ही रह जाने की विवशता में लिए गए ऐसे कतिपय निर्णयों का ही दु:ख था, जिससे सरदार बीमार रहने लगे थे और कुछ ही महीनों में उनकी मृत्यु भी हो गयी, हालांकि जाने से पहले वह अपनी कलम से आरएसएस को प्रतिबंध-मुक्त कर गए।

बहनों, भाईयों,

सरदार तब प्रधानमंत्री होते, तो पूरा का पूरा कश्मीर हमारा होता। धारा-370 न कभी होती और न हमारे छोटे सरदार को सत्तर साल बाद उसे खत्म करना पड़ता। अगर सरदार होते, तो सिक्किम तो सिक्किम, तिब्बत भी भारत का हिस्सा होता। अगर सरदार होते तो, बंगलादेश नहीं बनता, पूरा बंगाल हमारा होता, पूरे कश्मीर की तरह। बंगलादेश ही नहीं होता, तो घुसपैठियों की समस्या भी नहीं होती। अगर सरदार होते तो, हम अखंड भारत...।

पर हर चीज के लिए ऑरीजिनल सरदार को कष्ट क्यों देना, अखंड भारत, हिन्दू राष्ट्र, अब्दुल की चूड़ी टाइट वगैरह के लिए अपने सरदार-2 ही काफी हैं। वैसे भी ओरिजिनल सरदार हिस्ट्री में ही ठीक हैं। वर्तमान के लिए उनपर भरोसा नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री बनकर देश की एकता के चक्कर में अगला संघ को ख़त्म ही करने पर अड़ जाता तो। यहाँ से आगे उनकी विरासत संभालने के लिए हमारे शाहजी हैं ही। सरदार पटेल तब प्रधानमंत्री होते न होते, अब फूलमाला चढ़ी तस्वीरों और मूर्तियों में ही रहते।

*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और 'लोक लहर' के संपादक हैं।)*
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*2. रिश्वत में भाईचारे का गुजरात मॉडल : विष्णु नागर*

बड़ा अच्छा और बड़ा ही आदर्श प्रदेश‌ है गुजरात, जिसने महात्मा गांधी दिये, तो नरेन्द्र मोदी देने में भी कंजूसी नहीं की और जो भी दिया, खूब दिया और उसे अपने प्रदेश तक सीमित नहीं रखा, पूरे देश को दिया। यह इस राज्य के लोगों का बड़प्पन है। यहां का नमकीन भी पूरी तरह नमकीन नहीं होता, उसमें अमूमन मीठा मिला होता है!  यहां नमक को भी नमक नहीं, मीठू कहते हैं। यहां के भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारी मीठू नहीं, मीठे होते हैं। इतने दयालु, इतने कृपालु, इतने विनयशील, इतने संस्कारी होते हैं कि रिश्वत भी किस्तों में ले लेते हैं। रिश्वत देने वाले के प्रति, लेने वाले में ऐसी सहानुभूति का होना अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें करुणा का वैष्णव भाव है। यहां का रिश्वतखोर निर्मम नहीं होता। सारा माल पहले धरवा कर, फिर काम नहीं करता। रिश्वत देने वाले पर रिश्वत लेने वाला एक साथ इतना बोझ नहीं डालता कि एक ही बार में बेचारा टें बोल जाए और बाद में किसी और मामले में रिश्वत देने के काबिल नहीं रहे! इसमें वह 'दूरदर्शिता' है, जो देश के प्रधानमंत्री में पाई जाती है।


हिंदू -मुस्लिम भाईचारा भले ही वहां खत्म कर दिया गया हो, मगर रिश्वत के मामले में भाईचारा स्थापित हो गया है। वहां भ्रष्टाचार का हलाल सिस्टम है, झटका प्रथा नहीं। भ्रष्टाचारी अपने शिकार की ईएमआई तय कर देते हैं।आधी अभी दे दो, बाकी बाद में हर महीने देते रहना। तुम भी मौज करो, हम भी मौज करते हैं। रिश्वत का यह गुजरात माडल है तो बहुत आकर्षक, मगर यूपी-बिहार में यह चल नहीं सकता। इसे पूरे भारत में सफल बनाने का एक ही उपाय सरकार के पास है कि संसद में एक विधेयक लाकर इसे अखिल भारतीय स्वरूप दे! संकल्प से सिद्धि तक पहुंचे!

यह गुजरात माडल आदर्श तो है, मगर हर आदर्श समस्याग्रस्त होता है‌‌, तो कुछ समस्याएं इसमें भी हैं। एक बार काम निकाल जाने के बाद काम करवाने वाले कुछ लोगों के मन में 'बेईमानी' पैदा हो जाती है। वे बकाया किस्तें चुकाने की जगह पुलिस थाने में शिकायत कर देते हैं और रिश्वत लेवक ने जिस विश्वास और मैत्री भाव की नींव रखी थी, उसे खोखला कर देते हैं। वैसे इस तरह के मामले सौ में एक-दो ही होते होंगे, वरना यह सिस्टम फेल हो जाता! ईएमआई पद्धति का पतन हो जाता!

इस देश के इस समय में ईमानदार आदमी पर खतरा भ्रष्ट व्यक्ति की अपेक्षा सौ गुना ज्यादा है, जबकि रिश्वत लेना और देना 99 फीसदी तक सुरक्षित है, वरना इतने लोग रोज पकड़े जाते हैं, फिर भी यह धंधा तेजी से पनप रहा है! कोई एक भी प्रमाण बता दे कि यह धंधा संकट में है और बंद होने के कगार पर है। बाबाजी के आशीर्वाद से सब अच्छी तरह चल रहा है।

अपने देश की एक और बड़ी विशेषता यह है कि यहां भ्रष्टाचार, लूट और धोखाधड़ी के क्षेत्र में बहुत अधिक प्रतिभाएं सक्रिय हैं और बहुत जल्दी सफलता की सीढ़ियों पर सीढ़ियां चढ़ रही हैं। इस क्षेत्र में जितने नित नए-नए अन्वेषण हो रहे हैं, उतने अगर विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुए होते, तो भारत, चीन और अमेरिका दोनों से आगे निकल जाता तथा 2047, 2025 में ही संपन्न हो जाता और मोदी जी बहुत पहले झोला लेकर अहमदाबाद पहुंच चुके होते!

कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर साहित्यकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं। जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।

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