हाल के पखवाड़े, महीने-दो महीने में कुछ ज्यादा तेजी, कुछ अधिक उग्रता और सार्वदेशिक पैमाने पर जो एक साथ उभर कर आया दिखा है, वह है दलित उत्पीड़न का पहले से कही ज्यादा घिनौना रूप। पूरे देश में आमतौर से और भिण्ड से दमोह, यूपी से राजस्थान, हिमाचल से दिल्ली तक हिंदी भाषी इलाकों में खासतौर से दलितों को निशाना बनाकर उन्हें लांछित, प्रताड़ित, उत्पीड़ित किये जाने की घटनाएँ सामने आयीं। ऐसा नहीं कि पहली बार सामने आयीं। मगर हर जगह, जिस पैटर्न के साथ वे घटी, वह कुछ अलग और ज्यादातर मामले में एक जैसा था। पेशाब को इस बार जिस तरह हथियार के रूप में काम में लाया गया, वह घिनौनेपन के अपकर्ष का नया उत्कर्ष था।
सामाजिक उत्पीड़न, भले वह वर्ण-जाति के आधार पर कथित नीची जातियों पर हो या लैंगिक आधार पर महिलाओं का हो, उसका बड़ा मकसद उत्पीड़ित में ग्लानि, जलालत का अहसास कराना, उससे उसका मनुष्यत्व छीन कर खुद के प्रति घृणा पैदा करने का होता है। उसे इस कदर तोड़ देना होता है कि वह आत्मबहिष्करण की स्थिति में पहुंच जाए। इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए परिवार की महिलाओं की देह हमेशा निशाने पर रही है। सावरकर जब युद्ध में जीत के बाद पराजित पक्ष की महिलाओं को ससम्मान घर लौटाने के लिए छत्रपति शिवाजी को कोसते हैं, उनकी निंदा तक करते हैं और अपने हिंदुत्व में बलात्कार को राजनीतिक हथियार बनाने का आव्हान करते है, तब उसके पीछे यही भाव होता है। मुंह काला करना, गोबर, विष्ठा फेंकना भी इसी तरह के कुछ और दांव हैं। मगर हाल में हुई घटनाओं में पीड़ित के स्वमूत्र को हथियार बनाना नीचाई की निम्नता का नया उदाहरण है। गौमूत्राभिषेक अब ऑफिशियली स्वमूत्र अभिषेक तक पहुँच गया है। गौरतलब है कि इन लगभग सारे प्रकरणों में वे, जो भी लिप्त पाए गए हैं वे, सीधे या वाया उस कुनबे से जुड़े है, जिसे मोटा-मोटी संघी कुनबा कहा जाता है।
सारे हिन्दुओं की एकता के लिए समर्पित होने को अपना एकमात्र लक्ष्य बताने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के वर्ष में उसी धारा के इतने निचले स्तर तक आ जाना एक दोहरापन लगता है। एक तरफ सामाजिक समरसता के कर्मकांड, दूसरी तरफ स्वमूत्राभिषेक के काण्ड पर काण्ड अनायास नहीं हैं। यह संघ की जन्मना सोच का, उसके डी एन ए में निहित गुणसूत्रों का उछाल है। बात सिर्फ यही तक नहीं है – जैसा कि पहले भी लिखा जा चुका है, डॉ. अम्बेडकर को निशाना बनाकर किये जाने वाले हमले भी संख्या और विद्रूपता में कर्कश और तीखे हुए हैं। वे उनके खंडन, भंजन और छवि बिगाड़ने तक ही सीमित नहीं हैं, अब वे हाईकोर्ट परिसरों तक में उनकी प्रतिमा न लगने देने से आगे बढ़ते हुए लगाई जा चुकी मूर्तिया गिराने की घोषणाओं तक पहुँच गए हैं।
एक और पहलू गौरतलब है और वह यह कि जुगुप्सा जगाने वाली ऐसी सभी घटनाएं उन प्रदेशों में ज्यादा बारम्बारता के साथ घट रही हैं, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें है और इनमें से किसी भी सरकार के मुखिया, सत्ता पार्टी भाजपा और उनके रिमोटधारी आरएसएस का कोई भी बयान नहीं आया है। दिन में 36 के औसत से हर रोज बयान जारी करने वाले उनके किसी भी नेता को यह बुरा नहीं लगा है। इसी सन्दर्भ में एक और आयाम गौरतलब है कि आबादी के कथित भद्र और अभिजात्य समूह से लेकर मध्यम वर्ग, विशेषकर सवर्ण मध्य वर्ग के बीच इस सब कांडों को लेकर एक अजीब-सी चुप्पी है। ऐसा क्यों है, इसे ठीक तरीके से समझने के लिए आरएसएस की स्थापना के कारणों और तय किये गए ध्येय और उसकी संकल्पना पर नजर डालना बेहद जरूरी है।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की दुनिया कई तरह के झंझावातों की दुनिया थी। उसमें भी भारत में सामाजिक जड़ता और शोषण के खिलाफ जागरण लगभग तूफ़ान की शक्ल ले रहा था। संघ की स्थापना जिस शहर में की गयी, वह नागपुर और समूचा विदर्भ इसका एक बड़ा और मुखर केंद्र था। वर्णाश्रम को चुनौती दी जा रही थी। उसमें वर्णित शिक्षा और व्यवसाय से समाज के एक बड़े हिस्से को वंचित करने वाले ‘नियम-विधान’ तोड़े जा रहे थे। जोतिबा फुले का सत्यशोधक समाज एक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली राजनीतिक आन्दोलन के रूप में विकसित हो चुका था। मंदिर प्रवेश, सार्वजनिक स्थानों पर सबकी भागीदारी जैसे भावनात्मक मुद्दों से शुरू हुए आन्दोलन मांग और महार जैसी दलित जातियों के बीच हर तरह की सामाजिक समता और समानता के लिए राजनीतिक कार्यवाही से होते हुए प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्रों में ब्राह्मणों के आधिपत्य को चुनौती देने तक पहुँच चुके थे। दलित अधिकार आन्दोलन ब्राह्मणवाद विरोधी व्यापक नागरिक आन्दोलन की शक्ल ले रहा था। अनेक संगठन उभर रहे थे, शूद्रों और दमितों के मुद्दे मांगों के रूप में उठ रहे थे और सामाजिक सत्ता के हर क्षेत्र में तब तक के आधिपत्य को चुनौती दी जा रही थी। प्रो. आनंद तेलतुम्बडे ने संघ की शताब्दी वर्ष पर लिखे अपने रोचक वृतांत में इनमें से अनेक का उल्लेख किया है। ध्यान रहे यह पिछली सदी के दूसरे दशक की बात है, तब तक डॉ. बी आर अम्बेडकर राजनीतिक पटल पर नहीं आये थे।
इस कालखंड का एक और महत्वपूर्ण पहलू है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती और वह है उभरते पूँजीवाद से जन्म लेने वाले मजदूर वर्ग के तीखे होते संघर्ष। जलियांवाला बाग़ के बाद तो जैसे इन का स्फोट सा ही हुआ। अहमदाबाद हड़ताल, कोलकता की हड़तालें देशव्यापी लहर में बदल गयीं ब्रिटिश सरकार के आंकड़े बताते हैं कि ये पंजाब, संयुक्त प्रांत, बिहार ओड़िसा तक फैली। अकेले 1920 के 6 महीने में 200 से ज्यादा हड़ताल हुईं, जिनमे 5 लाख मजदूरों की भागीदारी हुई। अगले साल 1921 में मजदूर हड़तालें 396 हुयी, जिनमें 6 लाख मजदूरों ने भाग लिया। इसी बीच अनेक बड़े किसान आंदोलन हुए, जिनमे मोपला, संयुक्त प्रांत में जमींदारी के खिलाफ बगावत – चौरीचौरा भी इसी की अभिव्यक्ति थी -- आदिवासी विद्रोह काडो डोरा आंध्र प्रदेश, राजपूताने का भील विद्रोह शामिल हैं। इसी दौरान अकाली आंदोलन भी गांवों तक पहुंचा। इस वर्ग संघर्ष ने अपने रूपों के जरिये भी जातियों के श्रेणीक्रम की जंजीरों पर जोरदार प्रहार किये।
याद रखना जरूरी है कि युद्धोत्तरकाल के इस जन आंदोलन की बहुत बड़ी विशेषता विभिन्न धर्मावलम्बियों, खासकर हिन्दू-मुस्लिम फौलादी एकता का निर्माण था। 1857 के बाद बनी, किन्तु बीच में शिथिल हुयी, एकता फिर से मजबूत हुयी। यह वह कालखंड था, जिसमें रौलट एक्ट, असहयोग, खिलाफत जैसे आंदोलनों से बनी, ब्रिटिश गुलामी के खिलाफ बनी मैदानी एकता के चलते मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दोनों अप्रासंगिक हो गये थे।
इसी बीच 1911 में हुई जनगणना में हिन्दू समुदाय को तीन हिस्सों : हिन्दू, दमित दलित वर्ग – डिप्रेस्ड क्लास – और प्रकृतिवादी हिन्दू मतलब आदिवासी : में विभाजित करके गिनती की गयी। इस तरह तथाकथित हिंदुओं के बीच के आंतरिक बंटवारे को औपचारिक और संस्थागत रूप दे दिया गया।
यह वे हालात थे, जिन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्व और आधिपत्य को अक्षुण्ण और अमर बनाने की लालसा पाले तबकों के बीच घबराहट पैदा कर दी। इस बेचैनी से उबरने के लिए डॉ. हेडगेवार, जो तब तक हिन्दू महासभा के नेता हुआ करते थे, ने सवर्ण हिंदू युवाओं की आक्रामकता को बढ़ाने और जोड़ने के लिए 1925 में संघ की स्थापना की। मुसलमानों की ‘चुनौती और खतरे’ से मुकाबला धार्मिक भावनाएं भड़काकर, साम्प्रदायिक उभार लाकर किया जा सकता था, मगर जिनके कन्धों पर चढ़कर, जिनके श्रम को हड़पकर अब तक शीर्ष पर रहे हैं, वे कंधे ही अगर प्रतिरोध के झंडों को उठाने लगे और झुके बंधे हाथ ही यदि तनती मुट्ठियों में बदलने लगे, तो उन्हें मंदिर के बाहर खड़े रखकर सिर्फ दक्षिणा लेकर बहलाना मुश्किल था। खासकर तब जब ‘विशेषाधिकार’ लिए बैठे संख्या में बहुत ही कम हों। लिहाजा उनसे टकराने की बजाय उन्हें समायोजित करने की नीति अपनाई गयी।
असाध्य को साध्य बनाने का साधन
मुस्लिम खतरे और हिंदुओं के संकट में होने का डर दिखाकर उन्हें भी शामिल बनाए रखने या कम-से-कम उनकी रजामंदी हासिल करने की कार्यनीति बनाई गयी। ब्राह्मण वर्चस्व को धार्मिक मुखौटा पहनाकर कुछ हद तक स्वीकार्य बनाने का दांव खेला गया। यह असाध्य को साधने का साधन ढूँढने का काम था, जिसे हासिल करने के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद गढ़ा गया। यह एक ऐसा अजब-गजब राष्ट्रवाद था, जो देश को गुलाम बनाए रखने वाले ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ नहीं था, उस वक्त तबाही कर रही देश की भयानक लूट के खिलाफ नहीं था, अंग्रेजों की नीतियों से बरपे कहर, अकाल, गरीबी और लाखों से लेकर एक-एक करोड़ भारतीयों की मौतों की जिम्मेदार अंग्रेजों की नीतियों के खिलाफ नहीं था। अलग धार्मिक पहचान वाले समुदाय से खतरे की आशंका और वर्णाश्रम आधारित व्यवस्था के कमजोर होकर ढह जाने की चिंता में पगा और उन्हीं के खिलाफ था। इस तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना ही एक ओर ब्राह्मणवादी सत्ता की हिफाजत और इस तरह दलित्त समुदायों में तेजी पकड़ते जागरण और दूसरी तरफ मुसलमानों के खिलाफ थी। आरएसएस को सिर्फ मुसलमानों के विरुद्ध मानकर इसके असली ध्येय को नहीं समझा जा सकता : मुस्लिम समुदाय के खिलाफ तो यह है ही, मगर उसके बहाने उसकी बराबर की द्वेष भावना ब्राह्मणवादी आधिपत्य को आघात पहुंचाने वाले जाति विरोधी आन्दोलनों और चेतना से भी है। इन दोनों में से किसी को भी कमतर करके देखने से बीमारी की समझ अधूरी रह जायेगी।
हताशा के धुंधलके में सेंध
कुछ हालात भी ऐसे बने, जिनके चलते इस तरह की बीमारियों के फलने-फूलने की गुंजाइशें मिली। जैसे ऊपर की पंक्तियों में जनता की जिस फौलादी एकता का जिक्र किया गया है, उसमे व्यवधान आये। 1922 के चौरी चौरा काण्ड के बाद आन्दोलन को वापस ले लिए जाने से एक निराशा, झुंझलाहट और धुंधलका फैला। इसे उन शक्तियों ने भरा, जिन्हें स्वतन्त्रता आन्दोलन की गरमाहट झुलसा कर मुरझाकर हाशिये पर डाल चुकी थी। 1923 में हिन्दू महासभा का पुनर्गठन हुआ, इसके बाद निष्क्रिय हो चुकी मुस्लिम लीग सक्रिय हुई। प्रतिद्वंद्वी बैर भाव फैला -- और धर्म, सम्प्रदाय के नाम पर टकराव बढ़ा। अवसाद दंगों की शक्ल में निकला। साईमन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1922-27 के बीच 112 साम्प्रदायिक दंगे हुए हुए। इस सबके बीच 1925 की विजयादशमी पर आरएसएस बना, जिसका नामकरण 1926 में हुआ। यह संयोग भर नहीं है कि तकरीबन ठीक इसी तरह के हालात में हिटलर भी इसी बीच उभरा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मन जनता की हताशा को किस तरह मोड़ा गया, इसका जिक्र उसने अपनी आत्मकथा ‘मीन काम्फ’ में किया है। इटली में भी यही हालात थे। दोनों जगह 1918 के बाद की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने क्रांतिकारी उभार की अनदेखी की।
*निशाने पर मुस्लिम, ध्येय में मनु*
इस तरह मुस्लिम विरोध और दलित-दमित समुदायों के बीच उभरते आन्दोलनों का निषेध संघ के ध्येय का अविभाज्य हिस्सा है। इनमें कौन ज्यादा बड़ा है, इस बहस में पड़ने की बजाय दोनों को समान रुग्णता के रूप में देखना होगा। जो विराट हिन्दू एकता पर आधारित हिन्दू राष्ट्र और सामाजिक समरसता के दिखावों या कभी ‘जाति ब्राह्मणों ने बनाई है’ के जुमलों या ‘जाति मुगलों ने बनाई है’ के झांसों के मुगालतों में आने को तत्पर बैठे हैं, उनके साथ संवेदनाएं है – मगर आर एस एस और हिंदुत्व के जन्मदाताओं ने अपनी बात कभी नहीं छुपाई। वे अपनी बात पर हमेशा कायम रहे हैं : कभी जाति तोड़ने की बात नहीं की। दुनिया उथल-पुथल हो जाए, मगर मजाल है जो कभी भी जाति उत्पीड़न का विरोध किया हो। उन्होंने न कभी ब्राह्मणवादी शासन प्रणाली की बहाली का संकल्प छोड़ा, ना ही दलितों और दमितों के प्रति अपनी हिकारत को ही त्यागा है । लोग भले गलतफहमी पाले बैठे रहें, संघ ने संगठन और विचार दोनों के नाते कभी कोई भ्रम नहीं पाला। उदाहरण अनगिनत हैं, यहाँ सिर्फ दो लेते हैं।
पहले सावरकर हैं – इनके आराध्य और उस हिंदुत्व शब्द के जनक, जिसका खुद उनके मुताबिक़ हिन्दू धर्म या उसकी परम्पराओं से कोई संबंध नहीं है। उनका हिंदुत्व एक ख़ास तरह की शासन प्रणाली है। कैसी शासन प्रणाली? यह वे खुद बताते हैं, जब वे कहते हैं कि “चार वेदों के बाद सबसे पवित्र ग्रन्थ मनुस्मृति है।" सब जानते हैं कि अब यह पुण्य ग्रन्थ ही आज की सरकार का मार्गदर्शक है। इसे और स्पष्ट करते हुए वे बताते हैं कि “जिस देश में चातुर्यवर्ण नहीं है, वह म्लेच्छ देश है। आर्यावर्त अलग है।” और आगे बढाते हुए कहते हैं कि “ब्राह्मणों का शासन, हिन्दू राष्ट्र का आदर्श होगा।“ वह कैसा होगा, यह भी याद दिलाते हैं कि “सन 1818 में यहां देश के आखिरी और सबसे गौरवशाली हिन्दू साम्राज्य (पेशवाशाही) की कब्र बनी।” ध्यान रहे, यह वही पेशवाशाही है, जिसे जोतिबा फुले ने ‘गुलामगीरी’ में दर्ज किया है, जिसके खिलाफ आर्तनाद और शंखनाद दोनों का स्मारक भीमा कोरेगांव में खडा है और इन्हें आज भी डराता है। उसी हिन्दू पदपादशाही को फिर से कायम कर आरएसएस उसी मॉडल का हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है। उसमें बाकी जातियों के नागरिकों की दशा कैसी थी, यह दोहराने की आवश्यकता नहीं। रामभद्राचार्य के श्रेणीक्रम में तो अब अधिकाँश ब्राह्मण उपनामधारियों की भी खैर नहीं है।
दूसरे गोलवलकर हैं, जिन्हें संघ अपना प.पू. गुरु जी मानता है। आजीवन सामाजिक सुधार के कट्टर विरोधी और असमानता के पक्षधर रहे गोलवलकर तात्विक ज्ञान देते हैं कि'’ हमारे दर्शन के अनुसार ब्रह्माण्ड का उदय ही सत, रजस और तमस तीन गुणों के बीच संतुलन बिगड़ने से हुआ है। संतुलन बन जाएगा, तो ब्रह्माण्ड फिर शून्य में विलीन हो जाएगा। असमानता प्रकृति का नियम है।‘’ वे आम गरीब प्राणी को अधम और निकृष्ट करार देते हुए कहते हैं कि वह उसी तरह इकट्ठा हो जाता है, जिस तरह मांस का टुकड़ा डालने से कौए इकट्ठे हो जाते हैं। इसी आधार पर वे समानता की बजाय ‘’चींटी को कण भर -- हाथी को मन भर” का सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं। वे वर्ण व्यवस्था के समर्थक ; आरक्षण तथा पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए विशेष प्रयत्नों के विरोधी, मनु स्मृति के समर्थक, विधवा विवाह और तलाक दोनों के खिलाफ रहे। हिन्दू समाज की कमजोरी वर्ण व्यवस्था के कमजोर पड़ने में मानते रहे। जाग्रत दिमाग की बजाय बलिष्ठ और स्वस्थ शरीर को आवश्यक बताते रहे। सार्वत्रिक मताधिकार वाले लोकतंत्र को मुंड गणना और कुत्तों-बिल्लियों को अधिकार देना बताते रहे। हर तरह के जनतंत्र को खराब मानते रहे, धर्मनिरपेक्षता और संघवाद का विरोध करते रहे।
इस पृष्ठभूमि के साथ जोड़कर पेशाब काण्ड से लेकर जीभ से जूते चटवाने के कर्मों को देखें, तो समझ में आ जाता है कि यह छिटपुट हुयी वारदातें नहीं है, हिन्दू राष्ट्र का पूर्वाख्यान है – ट्रेलर और टीजर है। उस हिन्दू राष्ट्रवाद का व्यवहार है, जिसे समग्र हिन्दू एकता का जरिया बनाकर सौ साल पहले इसने अपनी यात्रा शुरू की थी। ऐसे में इन सबको देखते हुए वही लोग खामोश हैं या शरीके जुर्म हैं, जिन्हें इनके मध्ययुगीन राज में अपने हित दिखते हैं। मगर जिनका सब कुछ छिनने का मंसूबा बनाया गया है, क्या उनको यह सब पता है? अगर नहीं, तो उन्हें भी बताना और जगाना होगा।
शायर शमीम फरहत के मिसरे में कहें, तो “गम के सन्नाटों से आवाज अजब आती है / डर के सो जाएँ, या औरों को जगा लें हम लोग।“ जाहिर सी बात है, रास्ता औरों को जगाने का ही है। इसे ठीक वैसे ही किया जाएगा, जैसे चौरी चौरा के पहले साम्राज्यवाद के खिलाफ कौमी एकता बनाकर, सामाजिक सुधार के आन्दोलनों को आगे बढ़ाकर और वर्ग संघर्षों को धारदार बनाकर किया गया था।
लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं
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