बिहार : संघ-भाजपा की बदहवासी




आलेख : राजेंद्र शर्मा

बिहार में चुनाव अभियान अपने पूरे जोर पर तो छठ के पर्व के बाद ही आएगा। लेकिन, उससे पहले ही सत्ताधारी भाजपा-जदयू गठजोड़ की और उसमें भी खासतौर पर भाजपा की घबराहट और बदहवासी, साफ-साफ दिखाई देने लगी है। इस बदहवासी का इससे बड़ा संकेतक क्या होगा कि चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद, प्रधानमंत्री मोदी ने जो पहली दो जनसभाएं की हैं, उनमें वह चुनाव प्रचार की किसी व्यवस्थित और मतदाताओं की नजर में गंभीर थीम पर चलने के बजाए, मुद्दों को पकड़ने के लिए जैसे अंधेरे में हाथ मारते नजर आए। इसी का सबूत था कि उस बिहार में, जहां डिजिटल साक्षरता और युवाओं के लिए रोजगार, दोनों का ही स्तर बड़े हिंदी भाषी राज्यों में भी संभवत: सबसे कम है, प्रधानमंत्री युवाओं को ''रील्स बनाने'' के जरिए कमाई का रास्ता ही नहीं दिखा रहे थे, डॉटा चाय से भी सस्ता करा देने के लिए श्रेय का दावा भी कर रहे थे। और प्रधानमंत्री यह सब तब कर रहे थे, जबकि देश की निजी संचार इजारेदारियों ने अपने प्रतिस्पर्द्घियों को बाजार से बाहर करने और दो कंपनियों की लगभग पूर्ण इजारेदारी कायम करने के बाद, पिछले कुछ महीनों में ही डॉटा की दरों में अच्छी-खासी बढ़ोतरी की है।

हैरानी की बात नहीं है कि बिहार की समस्याओं के प्रधानमंत्री के इस डिजिटल-रील आधारित समाधान का सिर्फ विरोधियों द्वारा ही नहीं, आम लोगों द्वारा भी खूब मजाक बनाया जा रहा है। यही नहीं इसने सत्ताधारी गठजोड़ और उसके वास्तविक अगुआ के रूप में भाजपा की, इसकी आलोचनाओं को और धार दे दी है कि उनके पास, बिहार की बेरोजगारी, पलायन और गरीबी का, कोई वास्तविक समाधान ही नहीं है। सभी जानते हैं कि तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन तो इसे शुरू से अपने प्रचार का एक केंद्रीय मुद्दा बनाए ही रहा है, प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी भी इसे ही चुनाव का मुख्य मुद्दा बना रही है। भाजपा के दुर्भाग्य से मोदी के बाद नंबर-2 माने जाने वाले, अमित शाह द्वारा एक समाचार चैनल को दिए गए एक बहुप्रचारित साक्षात्कार में किए गए इस दावे ने इन आलोचनाओं की आग में और तेल डालने का ही काम किया है कि बिहार में उद्योग नहीं लग सकते हैं, क्योंकि गुजरात के विपरीत, बिहार में जमीन की कमी है! सवाल पूछा जा रहा है कि क्या विकास की उनकी संकल्पना में बिहार का भविष्य, सस्ते मजदूरों का गुजरात आदि दूसरेे राज्यों के लिए निर्यात करने तक ही सीमित है?

अगर प्रधानमंत्री मोदी के प्रचार में यह बदहवासी बिहार के लिए डिजिटल-रील समाधान की ओर उनके लपकने में दिखाई दे रही है, तो उनके नंबर-2 अमित शाह के प्रचार में इस बदहवासी का और दयनीय रूप देखने को मिल रहा है। शाह, अपने से उम्र और राजनीतिक अनुभव में आधे, तेजस्वी यादव का मुकाबला करने के लिए, उनके उठाए मुद्दों की खुल्लमखुल्ला नकल करते नजर आ रहे हैं। ताजातरीन यह कि शाह हाल के अपने बयानों में तेजस्वी का 'पढ़ाई, दवाई, सिंचाई' आदि का चिर-परिचित नारा, बिना किसी खास बदलाव के कमोबेश ज्यों का त्यों दोहराते देखे गए हैं।

और इस बदहवासी का एक अतिरिक्त कारण यह लगता है कि बिहार की विशेष परिस्थितियों में, जिनमें औपचारिक रूप से नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की मजबूरी और नीतीश कुमार की जद-यू का अल्पसंख्यकों से वोट की उम्मीद पूरी तरह से छोड़ने के लिए तैयार नहीं होना सबसे खास हैं, भाजपा का शीर्ष नेतृत्व खुलकर और व्यवस्थित तरीके से प्रचार की उन बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक थीमों का प्रयोग नहीं कर पा रहा है, जिनके प्रयोग को पिछले आम चुनाव से उसने अपने प्रचार का मुख्य आधार ही बना रखा था।

वास्तव में खुद प्रधानमंत्री की ही अगुआई में, चुनाव से कई महीने पहले भाजपा ने अपनी खास सांप्रदायिक थीम की आजमाइश भी शुरू कर दी थी, जब खुद प्रधानमंत्री ने इससे पहले झारखंड के अपने चुनाव प्रचार की निरंतरता में, ''घुसपैठियों'' के खतरे का मुद्दा उछाला था और विपक्ष को ''घुसपैठियों'' का पैरोकार बताकर, निशाने पर लेने की कोशिश की थी। यह प्रधानमंत्री के 15 अगस्त के भाषण की निरंतरता में था, जिसमें घुसपैठ की वजह से जनसांख्यिकी ही बदल जाने का डर दिखाया गया था और इससे निपटने के लिए एक जनसांख्यिकी आयोग के गठन का एलान किया गया था।

''आपरेशन सिंदूर'' के बाद के दौर में, कथित रूप से बंगलादेशी घुसपैठियों को पकड़ने और देश से बाहर निकालने के नाम पर, खासतौर पर बंगाली मुसलमानों को दिल्ली समेत अनेक भाजपा-शासित राज्यों में चुन-चुनकर निशाना भी बनाया गया था और इसके जरिए आम तौर पर घुसपैठियों के खतरे के प्रचार को और तेज किया गया था। इसी की पृष्ठभूमि में जब बिहार में चुनाव आयोग ने अचानक, मनमाने तरीके से एसआइआर थोपा था, उसके जरूरी होने के लिए खासतौर पर ''घुसपैठियों'' को मतदाता सूचियों से निकालने की दलील दी गयी थी, जिसका खासतौर पर भाजपा-आरएसएस ने जोर-शोर से अनुमोदन भी किया था। बाद में जब कच्ची मतदाता सूचियों में पैंसठ लाख से ज्यादा मतदाताओं के नाम काट दिए गए, तब भी भाजपा-आरएसएस ने इसी तर्क के सहारे, वोट काटने की इस कसरत का बचाव करने की कोशिश की थी। लेकिन, जब एसआइआर के बाद अंतिम मतदाता सूचियां जारी की गयीं, चुनाव आयोग ने यह बताने से ही इंकार कर दिया कि वास्तव में, घुसपैठियों के रूप में निशानदेही कर के कितने अवैध बंगलादेशी या अन्य विदेशी प्रवासियों के नाम, मतदाता सूची से काटे गए थे। जैसा कि बाद में पत्रकारों तथा अन्य कई विश्लेषणकर्ताओं की छानबीन से साफ हो गया, चुनाव आयोग की यह चुप्पी, ऐसे कोई खास नाम ही नहीं मिलने की वजह से थी। इसने कुल मिलाकर, चुनाव आयोग की ही नहीं, संघ-भाजपा की भी ''घुसपैठियों के खतरे'' की पूरी कहानी को, कम से कम बिहार के संदर्भ में तो पंचर कर ही दिया।

इसके बाद तो बस, बिना किसी बहाने के खुल्लमखुल्ला मुस्लिम-विरोधी दुहाई की ही गुंजाइश बचती थी, जिसके लिए जैसा कि हमने पीछे कहा, बिहार की विशेष राजनीतिक स्थिति इजाजत नहीं देती है। फिर भी, भाजपा की ओर से केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने मुसलमानों को ''नमकहराम'' घोषित करने और 'इन नमकहरामों के वोट की जरूरत नहीं है' का एलान करने के साथ, अकारण खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक दुहाई का सहारा लिए जाने की शुरूआत भी की थी। इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, आदित्यनाथ को प्रचार के लिए लाया भी गया था। लेकिन, शुरूआत में ही यह साफ हो गया कि जद-यू के साथ तथा अन्य छोटी गैर-सांप्रदायिक पार्टियों के साथ भी गठबंधन में, संघ-भाजपा द्वारा अपनी इस तुरप का इस तरह इस्तेमाल किया जाना, अन्य पार्टियों को मंजूर नहीं होगा। लिहाजा चुनाव प्रचार के शुरूआती दौर में ही, इन आगलगाऊ प्रचारकों को किनारे लगा दिया गया बताया जाता है। खबरों के अनुसार, आदित्यनाथ के चुनाव प्रचार कार्यक्रमों को प्रचार के बाद के दौर के लिए टाल दिया गया है, जो बाद का दौर शायद अब आए ही नहीं।

नतीजा यह कि संघ-भाजपा के खेमे में ऐसी बदहवासी है, जिसका असर उनके नंबर-एक और नंबर-दो तक के प्रचार में दिखाई दे रहा है।

फिर भी संघ-भाजपा की बदहवासी की यही एकमात्र वजह नहीं है कि अपना आजमूदा सांप्रदायिक हथियार आजमाने में उनके हाथ बंधे हुए हैं। उनकी बदहवासी की एक और बड़ी वजह यह है कि महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में राजद नेता, तेजस्वी यादव के नाम की घोषणा किए जाने ने, उनके चुनाव बाद के मंसूबों के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। जैसा कि सभी जानते हैं, भाजपा चुनाव के बाद, सरकार बनाने की स्थिति में होने पर भी, नीतीश कुमार को और पांच साल के लिए मुख्यमंत्री पद सौंपने के लिए तैयार नहीं है। इसीलिए, इस बार का चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़े जाने की मजबूरी को स्वीकार करने के बावजूद, भाजपा के शीर्ष नेताओं ने एक बार भी इसका एलान करना मंजूर नहीं किया है कि नीतीश कुमार ही, उनके मोर्चे की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। उल्टे खुद अमित शाह ने एक से अधिक मौकों पर यह कहकर मुख्यमंत्री पद की नीतीश कुमार की दावेदारी पर सवालों को हवा ही दी है कि मुख्यमंत्री के नाम का फैसला, चुनाव के बाद निर्वाचित विधायकों द्वारा किया जाएगा।

जाहिर है कि महाराष्ट्र के अनुभव के बाद, जहां पूर्व-मुख्यमंत्री शिंदे के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के बाद, जीत के बाद भाजपा के संख्याबल के नाम पर फडनवीस को मुख्यमंत्री बना दिया गया और शिंदे को उप-मुख्यमंत्री के पद से ही संतोष करना पड़ा, बिहार में भाजपा के सहयोगी दल और उनके आम समर्थक, यह मानने को तैयार नहीं हैं कि कथित रूप से नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाना और नीतीश कुमार को सत्ताधारी मोर्चे का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना, एक ही बात है। हैरानी की बात नहीं है कि इस मुद्दे पर भाजपा पर दबाव बढ़ाते हुए, जद-यू के अलावा सत्ताधारी गठबंधन में शामिल आरएलपी, हम आदि अन्य छोटी पार्टियों ने अपनी ओर से, नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी होने का एलान कर दिया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा, कब तक इस दबाव का मुकाबला कर पाएगी और इसके लिए कितनी राजनीतिक कीमत अदा करने के लिए तैयार होगी।

और संघ-भाजपा की बदहवासी की सबसे बड़ी वजह तो यही है कि बिहार का चुनाव उन्हें हाथ से निकलता नजर आ रहा है। सत्ताधारी गठजोड़ का मुकाबला जिस महागठंधन से है, उसका पलड़ा जाति-समीकरणों को छोड़कर, हर पहलू से भारी नजर आ रहा है। और जाति समीकरणों के स्तर पर उसकी कमजोरी की वामपंथ के एकजुट समर्थन और जाति-जनगणना समेत विभिन्न मुद्दों के जरिए पिछड़ों तथा दलितों के जुड़ाव समेत, वंचितों का उसके पक्ष में झुकाव आसानी से भरपाई कर सकता है। इसके ऊपर से बिहार की जागरूक जनता की एक जनतांत्रिक बदलाव की आकांक्षा है, जिसे तेजस्वी यादव का महागठबंधन का नेतृत्व करना, बखूबी प्रतिबिंबित करता है। इस बार संघ-भाजपा वाकई उस जगह पहुंच गए हैं, जहां उन्हें कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। इसके ऊपर से न तो वोट चोरी के मसले पर बिहार की जनता के अतिरिक्त रूप से जागरूक हो जाने चलते, चुनाव आयोग से बहुत ज्यादा उम्मीद कर सकते हैं और न बदलाव के जनता के स्पष्ट मूड के सामने, लोक स्वराज और एमआइएम जैसी इस महामुकाबले के बीच वोट काटने वाली पार्टियों से, खास मदद की उम्मीद कर सकते हैं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं


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