छत्तीसगढ़ आखिरकार, संसद को पहलगाम के बैसरन में आतंकवादियों द्वारा किए गए हत्याकांड से लेकर, उसके बदले के नाम पर छेड़े गए 'आपरेशन सिंदूर' तक पर चर्चा का मौका मिल ही गया। बेशक, इस सिलसिले में यह दर्ज किया जाना जरूरी है कि संसद को बैसरन हत्याकांड के पूरे तीन महीने और ऑपरेशन सिंदूर के भी रोके जाने के करीब ढाई महीने बाद, चर्चा का यह मौका मिला। और राष्ट्रीय सुरक्षा के इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर संसद में चर्चा होने में यह विलंब कोई संयोग का या तात्कालिक व्यस्तताओं में समय न मिल पाने का नतीजा नहीं था। यह विलंब मौजूदा सरकार ने सचेत रूप से सुनिश्चित किया था। और इसे सचेत रूप से सुनिश्चित करने में इस मुद्दे पर संसद का 'विशेष सत्र' बुलाए जाने की एकजुट विपक्ष की मांग का ठुकराया जाना ही शामिल नहीं था, बल्कि इसका रास्ता बनाने के लिए, एक अनोखी तिकड़म का सहारा लिया जाना भी शामिल था, जिसके तहत अब तक के संसदीय इतिहास में पहली बार, डेढ़ महीने से भी ज्यादा पहले, संसद के आगामी सत्र की तारीखों का ऐलान किया गया था। यह एक प्रकार से 'विशेष सत्र' की विपक्ष की मांग के ठुकराए जाने का भी ऐलान था।
बेशक, अंतत: हुई इस चर्चा को इस अर्थ में विस्तृत या विशद चर्चा कहा जा सकता है कि इसमें दोनों सदनों में सभी पक्षों को समुचित समय ही नहीं मिला, सरकार की ओर से शीर्ष स्तर से इस चर्चा का जवाब भी दिया गया। लोकसभा में खुद प्रधानमंत्री ने पौने दो घंटे से भी कुछ ज्यादा लंबा जवाब दिया, जबकि राज्यसभा में मोदी सरकार में व्यवहार में नंबर-दो माने जाने वाले, गृहमंत्री अमित शाह ने जवाब देने की जिम्मेदारी संभाली। इस बहस में सत्तापक्ष के इस पूरे प्रकरण में 'सफलता' के दावों को जैसे बल प्रदान करने के लिए ही, लोकसभा में इस बहस के शुरू होने से सिर्फ एक दिन पहले, जम्मू-कश्मीर में एक मुठभेड़ में तीन आतंकवादियों को मार गिराया गया था, जिनके संबंध में गृहमंत्री ने पहले लोकसभा को और बाद में राज्यसभा को बताया कि यही तीनों बैसरन के कत्लेआम को अंजाम देने वाले आतंकवादी थे। इस दावे को प्रामाणिक बनाने के लिए गृहमंत्री ने विस्तार से फोरेंसिक लेबोरेटरी की जांच रिपोर्टों के बारे में बताया, जो इसका साक्ष्य प्रस्तुत करती थीं कि अब मारे गए आतंकवादियों की बंदूकों से ही वे गोलियां चली थीं, जिन्होंने बैसरन के घास के मैदान में 26 लोगों की जान ली थी।
यह दूसरी बात है कि पर्यटकों के हत्यारों का, दहशतगर्दी की वारदात के बाद तीन महीने तक गायब रहने के बाद, गृहमंत्री के लोकसभा में भाषण से ठीक एक दिन पहले सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में मारा जाना, सत्तापक्ष के लिए इतना ज्यादा सुविधाजनक संयोग था कि उस पर सहज ही विश्वास नहीं हो सकता था। बहस के दौरान विपक्ष के अनेक सांसदों ने इशारों में और कुछ ने सीधे-सीधे इस संयोग पर सवाल खड़े भी किए। लेकिन, सत्तापक्ष के सभी लक्ष्यों को हासिल करने में 'कामयाबी' के दावों के लिए, इस 'ऑपरेशन महादेव' की कामयाबी का यह दावा बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण था। इसके महत्व का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि संसद की इस बहस के फौरन बाद, अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी के अपने दौरे पर प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक सभा में जोर देकर इसका दावा किया कि 'महादेव के आशीर्वाद से पहलगाम के बदले का अपना वादा उन्होंने पूरा कर दिया है।'
बैसरन से लेकर सिंदूर तक पर संसद में हुई यह बहस लंबी तो जरूर थी, लेकिन जो कुछ हुआ उस पर, उसके कारणों पर और भविष्य के लिए उसके सबकों पर, शायद ही कोई रोशनी डालती थी। संक्षेप में इसकी मूल वजह थी, सत्तापक्ष की हर तरह की जवाबदेही तथा जिम्मेदारी से बचने की कोशिश। इस कोशिश में सत्तापक्ष ने जवाबी हमले के नाम पर शोर तो बहुत उठाया लेकिन, न विपक्ष के माध्यम से उठाए गए देश तथा दुनिया भर के लोगों के सवालों का कोई वास्तविक जवाब दिया और न ही किसी तरह से अपनी जवाबदेही स्वीकार की। बहस की इस दिशा का अंदाजा एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री के पौने दो घंटे से भी लंबे भाषण में, विपक्ष तथा खासतौर पर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस पर हमला करने के लिए, देश के पहले प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू का पूरे पंद्रह बार नाम लिया गया। इस बहस में सत्तापक्ष ने अपनी विफलताओं से संबंधित सवालों के जवाब देने के बजाय, विपक्ष की अतीत की कथित विफलताओं पर हमला बोलने की ही रणनीति अपनायी, जो मोदी राज की खास पहचान ही बन गयी है।
बैसरन की जिस आतंकी वारदात से यह पूरी घटनाक्रम शुरू हुआ था, उसके लिए जिम्मेदार सुरक्षा चूक को लेकर, सत्तापक्ष में कोई पछतावा या मलाल होना तो दूर रहा, वह तो खुले मन से सुरक्षा चूक की बात मानने तक को तैयार नहीं था। उसने इसकी जुमलेबाजी के पीछे छुपने की कोशिश जरूर की कि आतंकवादी घुस आए, तो सुरक्षा चूक तो होगी ही और हम शासन में हैं तो चूक हमारी ही कही जाएगी! इस तरह का रुख इसके बावजूद था कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद से ही निपटने और उसका शेष देश के साथ और पुख्ता तरीके से एकीकरण करने के नाम पर, 2019 के 5 अगस्त को, धारा-370 को निरस्त करने तथा जम्मू-कश्मीर को बांटकर लद्दाख उससे अलग करने तथा उसका राज्य का दर्जा समाप्त कर, उसे केंद्र शासित क्षेत्र बनाने के बाद से, साधारण पुलिस व्यवस्था समेत समूची सुरक्षा व्यवस्था, सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय से संचालित होती है। यहां तक कि पहलगाम की घटना के बाद, जब सुरक्षा व्यवस्था की समीक्षा के लिए शीर्षस्थ अधिकारियों की बैठक बुलायी गयी, केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में लैफ्टीनेंट गवर्नर उसके केंद्र में रहा, जबकि जम्मू-कश्मीर के निर्वाचित मुख्यमंत्री को सचेत रूप से उक्त बैठक से बाहर रखा गया था।
घटना के महीनों बाद, लैफ्टीनेंट गवर्नर ने जिस चलताऊ ढंग से 'सुरक्षा चूक की जिम्मेदारी' ली थी, उससे रत्तीभर ज्यादा जिम्मेदारी केंद्र सरकार ने इस बहस के दौरान नहीं दिखाई। यह इसके बावजूद था कि अब तक यह सभी जान चुके हैं कि बैसरन में पहले एक न्यूनतम सुरक्षा मौजूद थी, जिसे घटना से कुछ ही हफ्ते पहले हटाया गया था। और यह भी कि शासन के पास इसकी खुफिया जानकारियां थीं कि आतंकवादी घटना के समय के करीब ही किसी बड़ी कार्रवाई की योजना बना रहे थे और उनके इस बार पर्यटकों को निशाना बनाने की संभावना थी। इस सबके लिए कौन जिम्मेदार है, इसका जवाब देने की कोई कोशिश नहीं की गयी। और इस महत्वपूर्ण सवाल को तो पहचाना तक नहीं गया कि 2019 के अगस्त से जम्मू-कश्मीर के मामले में केंद्र सरकार ने जो नीति तथा दिशा अपनायी है, उसके संबंध में इस तरह की घटनाओं का होना क्या कुछ कहता है?
इसी तरह, 'ऑपरेशन सिंदूर' के संबंध में न तो इस सवाल का कोई वास्तविक जवाब दिया गया कि साढ़े तीन दिन की लड़ाई से क्या हासिल हुआ और न ही इस महत्वपूर्ण सवाल का कोई तार्किक जवाब दिया गया कि अगर लड़ाई में भारत वाकई भारी पड़ रहा था, तो अचानक शस्त्र विराम की घोषणा क्यों कर दी गयी? और घोषणा भी सबसे पहले राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा और उसके बाद ही दोनों युद्घरत पक्षों, भारत और पाकिस्तान के अधिकारियों के द्वारा की गयी। इस लड़ाई का हासिल क्या रहा, इसके संबंध में सत्तापक्ष के 'सारे लक्ष्य पूरे होने' के अंतहीन दावों के बावजूद, सच्चाई यह है कि इस लड़ाई के वास्तविक परिणामों पर इतनी रोशनी तक नहीं पड़ने दी गयी है कि देश यह जान पाता कि क्या इस कार्रवाई में भारतीय वायु सेना का भी कोई नुकसान हुआ था और अगर हुआ था तो क्या और कितना? रक्षा मंत्री ने परीक्षा में पेंसिल टूटने की मिसाल देकर, इन सवालों को हास्यास्पद बनाने की जो कोशिश की, उसे कोई गंभीरता से कैसे ले सकता है? अपने पक्ष के नुकसान का आकलन किए बिना, किसी कार्रवाई के हासिल का आकलन किया ही कैसे जा सकता है? और अपने नुकसान का आकलन किए बिना, आइंदा उसी तरह के नुकसान के रास्ते पर चलने से कैसे बचा जा सकता है? लेकिन, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के 'खिड़की का एक कांच तक नहीं टूटा' के दावे इन सवालों के प्रति इस सरकार की दंभपूर्ण अगंभीरता को ही दिखाते हैं।
इस सिलसिले में विपक्ष बेशक खासे प्रभावी तरीके से यह उजागर करने में कामयाब रहा कि राजनीतिक नेतृत्व द्वारा अपनायी गयी सैन्य रणनीति के चलते, इस कार्रवाई के शुरूआती दौर में भारतीय वायु सेना को काफी नुकसान उठाना पड़ा लगता है। याद रहे कि यह सिर्फ विपक्ष का अनुमान नहीं है। सीडीएस समेत विभिन्न शीर्ष सैन्य अधिकारियों द्वारा अलग-अलग मौकों पर की गयी टिप्पणियों से यह स्पष्ट है कि कार्रवाई के शुरूआती दौर में भारत के विमान (एक से अधिक) गिरे थे और यह राजनीतिक नेतृत्व द्वारा तय की गयी सैन्य रणनीति का नतीजा था, जिसके तहत तय किया गया था कि सिर्फ आतंकवाद से जुड़े निश्चित ठिकानों पर प्रहार किया जाएगा और पाकिस्तान के हवाई सुरक्षा तंत्र को निशाना नहीं बनाया जाएगा। इसकी जिम्मेदारी स्वीकार करने और इस रणनीति के खोखलेपन को पहचानने की जगह, मोदी सरकार इस कार्रवाई में हुए नुकसान को छुपाने में ही लगी रही। इसके लिए एक फर्जी बहाना यह बनाया गया कि आपरेशन सिंदूर तो अब भी जारी है, इसलिए उसके नफा-नुकसान का आकलन नहीं किया जा सकता! अगर यह तर्क वाकई गंभीर है तो, इसके सफल होने और अपने सारे लक्ष्य पूरे करने के दावे कैसे किए जा सकते हैं?
सवाल सिर्फ यह नहीं है कि पूछता है भारत कि हमारे कितने विमान गिरे? भारत सबसे बढ़कर इसलिए जानना चाहता है कि काफी नुकसान वाली साबित हुई इसी सैन्य रणनीति को दोबारा नहीं दुहराया जाए। और यही बात अमरीकी मध्यस्थता से हुए शस्त्र विराम के संंबंध में सच है। मोदी सरकार, फर्जी राष्ट्रवाद के बवंडर के पीछे इस सच्चाई को छुपाने की कोशिश कर रही है कि वास्तव में सवाल, ऑपरेशन सिंदूर की उपयोगिता तक जाते हैं। अपने सांप्रदायिक रंग में रंगे, राष्ट्रवादी पाखंड के चक्कर में मोदी राज ने, भारत की पड़ोसी नीति और खासतौर पर पाकिस्तान नीति को, तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक्स की मरीचिका में फंसा दिया है। इसने दूसरे तमाम कूटनीतिक रास्तों को बंद कर, भारत को अकेला और कर दिया है। इस छद्म राष्ट्रवाद के ही भ्रमजाल को काटना होगा। आपरेशन सिंदूर की इस बुनियादी विफलता को ही पहचानना होगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोक लहर' के संपादक है
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