इंदिरा गांधी के जिस इमरजेंसी निजाम के अब पचास साल हो रहे हैं, उसकी एक प्रमुख निशानी बेशक उन कुख्यात इक्कीस महीनों में प्रेस का दमन और उसकी स्वतंत्रता का छीना जाना थी। खासतौर पर इमरजेंसी के शुरूआती दौर की याद करते ही हमें अखबारों और पत्रिकाओं के जगह-जगह से काले रंग से पुते हुए पन्ने याद आते हैं, जिनमें प्रकाश्य सामग्री के अनेक हिस्सों पर सेंसर तंत्र की कैंची चली थी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में संभवत: पहली बार और अब तक अंतिम बार भी, बाकायदा एक सेंसरशिप तंत्र खड़ा किया गया था, जिसका काम हर छपने वाले शब्द को छपने से पहले जांचना था, ताकि तमाम प्रकाशित सामग्री का शासन की इच्छा के अनुकूल होना सुनिश्चित किया जा सके। याद रहे कि यह वह जमाना था, जब जन माध्यम या मास मीडिया का दायरा, पत्र-पत्रिकाओं तक ही सीमित था। रेडियो जरूर तब तक एक महत्वपूर्ण माध्यम बन चुका था, लेकिन वह पूरी तरह से शासन के नियंत्रण में था और एकदम शुरूआती दौर का टीवी भी। सिनेमा जरूर एक और स्वतंत्र माध्यम था और सभी जानते हैं कि इमरजेंसी के दौरान उसे भी नियंत्रित करने की पूरी कोशिश की गयी थी। यह सब, खास तौर पर अपने तौर-तरीके में, देश के लिए तब तक पूरी तरह से अपरिचित ही था।
बहरहाल, यहां तक हमने जो तस्वीर दिखाई, वह प्रेस के साथ इमरजेंसी की तानाशाहीपूर्ण सत्ता के सलूक की तस्वीर है। लेकिन, यह सोचना सही नहीं होगा कि इमरजेंसी के दौर में प्रेस जो कर रही थी, उसकी यह प्रतिनिधि तस्वीर थी। बेशक, इमरजेंसी में प्रेस की स्वतंत्रता पर भीषण हमला हुआ था। इमरजेंसी के दौरान बेशक, पत्र-पत्रिकाओं में क्या छप सकता है, उसे बाकायदा सेंसर किया जा रहा था। लेकिन, बाहर से सेंसरशिप थोपे जाने की जरूरत अपने आप में इसका सबूत थी कि इमरजेंसी के दौरान प्रेस की कहानी, सत्ता के इस दमन की कहानी ही नहीं थी। वास्तव में इमरजेंसी के शुरूआती दौर की चाक्षुष स्मृति में काले रंग से रंगे हुए पन्नों की जो छवि सहज ही उभरती है, इस कहानी के सिक्के के दूसरे पहलू को सामने लाने वाली कहानी है, प्रतिरोध की कहानी। सेंसरशिप द्वारा काटे गए शब्दों/ वाक्यों/ पैराग्राफों की जगह खाली छोड़ा जाना या काले रंग से रंगकर प्रस्तुत किए जाना, प्रतिरोध की एक शानदार कहानी कहता था। इसके और प्रखर हिस्से के तौर पर अनेक अखबारों तथा पत्रिकाओं ने, शुरू के दिनों में पूरे-पूरे पन्ने खाली या काले कर के छोड़ दिए थे।
बेशक, कोई यह नहीं कह रहा है कि इमरजेंसी निजाम पर समूचे प्रेस की एक जैसी प्रतिक्रिया रही थी। हर्गिज नहीं। इस प्रतिक्रिया में भी भारतीय प्रेस की शानदार विविधता दिखाई देती थी। और यह दावा तो और भी नहीं किया जा सकता है कि शुरूआत में इमरजेंसी निजाम पर जिस तरह की प्रतिक्रिया प्रेस में देखने को मिली थी, इमरजेंसी के पूरे दौर में वैसी ही प्रतिक्रिया बनी रही थी। जाहिर है कि शुरूआती दौर में इमरजेंसी निजाम से और सबसे बढ़कर सेंसरशिप की उसकी व्यवस्थाओं से जिस तरह का 'शॉक' लगा था, उसका प्रभाव समय के साथ घटा था और एक हद तक इमरजेंसी का भी सामान्यीकरण हो गया था या उसे नया नॉर्मल मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। फिर भी, इतना तो निश्चयपूर्वक कहा ही जा सकता है कि आमतौर पर प्रेस का रुख इमरजेंसी के खिलाफ था। आमतौर पर इमरजेंसी और उसकी व्यवस्थाओं को एक असामान्य स्थिति की तरह ही लिया जा रहा था, जिससे उबरने का बेसब्री से इंतजार था।
1977 के आरंभ में हुए चुनाव में इमरजेंसी और उसे लगाने वाली इंदिरा गांधी की जबर्दस्त हार में, प्रेस के इस आम तौर पर 'विरोधी' रुख ने कितनी मदद की होगी, यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन, इतना तय है कि इंदिरा गांधी निजाम के इस हार को दूर-दूर तक भांप ही नहीं पाने के पीछे जरूर, जनता की आवाज शासन तक पहुंचाने के साधन के रूप में, प्रेस के अनुपस्थित ही होने की शायद सबसे बड़ी भूमिका रही थी। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी उसी सिंड्रोम की शिकार थी, जिसकी शिकार सामान्य रूप से तानाशाहीपूर्ण व्यवस्थाएं होती हैं — जनता की मर्जी से असंबंध या उसके प्रति अंधता की शिकार। श्रीमती गांधी चुनाव में जीत की उम्मीद लगाए बैठी रहीं, जबकि जनता इस हद तक उन्हें ठुकराने का मन बनाए बैठी थी कि जब चुनाव के नतीजे आए तो कांग्रेस पूरे उत्तरी भारत में लोकसभा की सिर्फ दो सीटों पर सिमट कर रह गयी।
जैसा कि जानी-मानी पत्रकार, मानिनी चैटर्जी ने अपनी एक टिप्पणी में रेखांकित किया था, 2004 के आम चुनाव में एक बार फिर सत्ताधारी पार्टी को इसी प्रकार अप्रत्याशित हार का मुंह देखना पड़ा था। लेकिन, मानिनी ध्यान दिलाती हैं कि 1977 और 2004 की सत्ताधारी पार्टी की हारों में 'अप्रत्याशितता' के तत्व में एक बुनियादी अंतर था। 1977 की हार सत्ताधारी पार्टी के लिए इसलिए अप्रत्याशित थी कि उसे प्रेस के रूप में जनता की राय तक पहुंच ही हासिल नहीं थी, जबकि 2004 के चुनाव में उसकी हार इसलिए अप्रत्याशित थी कि तब तक जनसंचार की मुख्यधारा पर काबिज हो चुका इलेक्ट्रानिक मीडिया हालांकि मुख्यत: सत्ताधारी पार्टी के साथ था, फिर भी उसे आम लोगों की राय के बारे सही फीडबैक देने में असमर्थ था।
इमरजेंसी के बाद गुजरे पचास बरस में और 2004 के अप्रत्याशित नतीजे के बाद से गुजरे दो दशकों में, जाहिर है कि हमारे देश में मीडिया परिदृश्य में बहुत भारी बदलाव आए हैं। इसमें भी पिछले एक दशक में तो ये बदलाव और भी ज्यादा तेजी से हुए हैं। इन बदलावों में तीन तत्व मुख्य हैं। पहला यह कि परंपरागत मीडिया यानी पत्र-पत्रिकाओं के मुकाबले इलेक्ट्रानिक मीडिया का जबर्दस्त वर्चस्व कायम हो चुका है। दूसरा यह कि समूचे मीडिया परिदृश्य में इजारेदार पूंजीपतियों का बोलबाला हो गया है और इन इजारेदार पूंजीपतियों का लगभग पूरी तरह से वर्तमान सत्ताधारियों के साथ गठबंधन है। इस सूरत में, अपवादस्वरूप सोशल मीडिया को छोड़कर, स्वतंत्र मीडिया की लगभग कोई जगह ही नहीं बची है।
तीसरे, वर्तमान सत्ता ने भी मीडिया को अपने खूंटे से बांधने के लिए साम-दाम-दंड-भेद, सभी हथियारों का खुलकर इस्तेमाल किया है। इस सब के सामने इमरजेंसी का सेंसरशिप का राज तो बच्चों का खेल नजर आता है। इमरजेंसी के प्रतिबंध ज्यादातर नकारात्मक थे, जो सरकार की आलोचनाओं को छानकर रोकने की कोशिश करते थे। मीडिया की वर्तमान घेरेबंदी आक्रामक है, जो मीडिया को सत्तापक्ष की ओर से हमले का हथियार बनाती है। इन दस सालों में मीडिया को एक बहुत ही उपयुक्त परिचयात्मक नाम प्राप्त हुआ है — गोदी मीडिया। लेकिन, वास्तव में मीडिया की वर्तमान स्थिति को प्रतिबिंबित करने के लिए, गोदी मीडिया की संज्ञा भी अपर्याप्त लगती है। इसकी मुख्य वजह यह है कि सत्तापक्ष की जैसी आक्रामक सेवा अब इस गोदी मीडिया की आम पहचान बन चुकी है, गोदी मीडिया की संज्ञा उसे पूरी तरह से अभिव्यक्त करने में असमर्थ है।
हैरानी की बात नहीं है कि मीडिया पर सत्ताधारी गुट के लगभग मुकम्मल नियंत्रण के बावजूद, 2024 के आम चुनाव में, 2004 दोहराते-दोहराते बचा था। चार सौ पार का नारा लगाने वाली सत्ताधारी पार्टी ढाई सौ सीटों से भी नीचे रुक गयी और लोकसभा में अपने बूते बहुमत गंवा बैठी। जाहिर है कि सत्ताधारी पार्टी और उसके शीर्ष नेता के लिए, यह एक तगड़ा झटका था। फिर भी यह झटका 2004 या 1977 जितना निर्णायक नहीं बन सका, तो अन्य तमाम कारणों के लिए अलावा इसकी एक वजह, इस दौरान मीडिया के चरित्र में भारी बदलाव में हो सकती है। इसका तो हम पीछे जिक्र कर आए हैं कि किस तरह सत्ता की जेब में बैठे इजारेदारों के नियंत्रण से मुक्त रहने के अर्थ में 'स्वतंत्र मीडिया' को धकियाकर करीब-करीब बाहर ही कर दिए जाने के बाद, गोदी मीडिया का बोलबाला हो चुका है, जो सिर्फ मालिक की गोदी में सवार ही नहीं रहता है, मालिक के इशारे पर भौंकने और काटने वाला मीडिया भी है। और यह भोंकना और काटना सिर्फ राजनीतिक विपक्ष के खिलाफ ही नहीं है। यह भौंकना और काटना, तमाम जनतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, संस्थाओं तथा तकाजों के खिलाफ, बल्कि तमाम मानवीय मूल्यों के खिलाफ भी है।
इसका सबूत गज़ा से लेकर ईरान तक पर इजरायली-अमरीकी हमले के प्रति मीडिया की मुख्यधारा के रुख में मिल जाता है, जो बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के रंग में रंगा हुआ है। यही चीज मीडिया को आम तौर पर सत्ताधारी पार्टी ही नहीं, बल्कि खासतौर पर संघ-भाजपा जोड़ी के हिंदुत्ववादी एजेंडे का हथियार बना देती है। इमरजेंसी के बाद गुजरे पचास साल में यही बड़ा बदलाव आया है। जहां इमरजेंसी में मीडिया आम तौर पर उसके साथ नहीं था बल्कि ज्यादातर उसके खिलाफ ही था, आज तब के मुकाबले हजारों गुना ताकतवर होने के बावजूद मुख्यधारा का मीडिया, सत्ताधारी गुट के, उसके एजेंडे के हित साधने का एक बड़ा, सक्रिय औजार बना हुआ है। वह तानाशाही का मीडिया था और यह उससे एक सीढ़ी ऊपर, नव-फासीवाद का मीडिया है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं
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