मुंबई – ईद-उल-अजहा के मौके पर हर साल की तरह इस बार भी लाखों जानवरों की कुर्बानी दी गई, लेकिन इस बार मदरसों को खाल दान मिलने में भारी कमी देखने को मिली। चमड़े की घटती कीमतों के चलते कई मदरसों ने लोगों से स्पष्ट रूप से कहा कि वे इस साल खाल एकत्र नहीं कर पाएंगे।
मेमनवाड़ा रोड स्थित बड़ा मदरसा दारुल उलूम इमदाद ने कहा, “पहले कुर्बानी के चमड़े से हमारी आय का एक अहम स्रोत बनता था, लेकिन इस साल हालत यह है कि अभी तक कोई खरीदार नहीं मिला है।” संस्था ने लोगों से अपील की कि वे खाल की जगह प्रति जानवर ₹200 का दान करें।
इस्लामी विद्वान मौलाना एजाज कश्मीरी ने बताया कि खाल दान की परंपरा गरीबों और छात्रों की मदद के लिए होती थी। “इससे मदरसे के छात्रों के भोजन और किताबों की व्यवस्था होती थी,” उन्होंने कहा। अनुमान है कि इस बार मुंबई में लगभग 3 लाख जानवरों की कुर्बानी दी गई।
मदरसे से जुड़े शाहिद मोहम्मद ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में यह व्यवस्था लगभग खत्म हो चुकी है। “अब खाल की कीमत इतनी गिर चुकी है कि उसे इकट्ठा करना, साफ करना और सुरक्षित रखना भी घाटे का सौदा है।”
पहले एक बकरी या भेड़ की खाल ₹500 से ₹1000 में बिकती थी, लेकिन अब वह स्थिति नहीं रही। ऑल इंडिया जमीयतुल कुरैश के उपाध्यक्ष इमरान बाबू कुरैशी ने बताया, “अब तो हालत यह है कि खाल फेंकनी पड़ रही है, क्योंकि उसे खरीदने वाला ही नहीं है।”
इस गिरावट की बड़ी वजह यूरोप और उत्तरी अमेरिका में चमड़े के उत्पादों की मांग में आई कमी है। कानपुर के जाजमऊ स्थित लेदर इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के एक सदस्य ने बताया कि “पिछले कुछ सालों में असली चमड़े के बजाय सिंथेटिक और फॉक्स लेदर के उपयोग में बढ़ोतरी हुई है, जिससे असली चमड़े की मांग में भारी गिरावट आई है।”
धारावी स्थित माज लेदर के शाह नवाज़ ने कहा, “अब लोग असली चमड़े की जगह नकली चमड़े और अन्य कृत्रिम सामग्रियों को पसंद कर रहे हैं। इसी कारण चमड़ा उद्योग में भारी मंदी है।”
चमड़े की इस गिरती मांग ने न केवल उद्योग को, बल्कि उससे जुड़े सामाजिक-धार्मिक कार्यों को भी गहरा नुकसान पहुंचाया है। मदरसे अब परंपरागत दान के इस माध्यम को छोड़कर नकद सहयोग की ओर रुख कर रहे हैं।
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